एक लड़की शादाँ
रोचक तथ्य
This poem is a memorial of my dear daughter Irshad Batool ... I have been writing poems for children for some time. My eldest daughter Irshad Batool, whom I affectionately called "Shadan", used to read them with great interest. This is also one of the poems I wrote in October 1929, when I wrote several poems for the anniversary of the magazine "Phool". I was traveling at that time and my children were in Jalandhar where Shadan was reciting the Holy Quran in Madrasa Al-Banat. The purpose of this poem was just to tease her a bit. I wrote that she reads nothing. She spends the whole day in sports. The idea was that at first she would be happy to see this poem in her own name. When she reads it, she will read it and it will go mad. And in the same way, there will be a lot of laughter. When I returned home that evening, i learned that, Shadan, had fell in a well and was no more. And at the time when I was burying my daughter in front of my own eyes, I received the magazine 'Phool' in which that nazm was published.- Hafiz Jalandhari
इक लड़की थी छोटी सी
दुबली सी और मोटी सी
नन्ही सी और मुन्नी सी
बिल्कुल ही थन मथनी सी
उस के बाल थे काले से
सीधे घुँघराले से
मुँह पर उस के लाली सी
चट्टी सी मटियाली सी
उस की नाक पकोड़ी सी
नोकीली सी चौड़ी सी
आँखें काली नीली सी
सुर्ख़ सफ़ेद और पीली सी
कपड़े उस के थैले से
उजले से और मैले से
ये लड़की थी भोली सी
बी बी सी और गोली सी
हर दम खेल था काम उस का
शादाँ बी-बी नाम था उस का
हँसती थी और रोती थी
जागती थी और सोती थी
हर दम उस की अम्माँ-जान
खींचा करती उस के कान
कहती थीं मकतब को जा
खेलों में मत वक़्त गँवा
अम्मी सब कुछ कहती थी
शादाँ खेलती रहती थी
इक दिन शादाँ खेल में थी
आए उस के अब्बा जी
वो लाहौर से आए थे
चीज़ें वीज़ें लाए थे
बॉक्स में थीं ये चीज़ें सब
ख़ैर तमाशा देखो अब
अब्बा ने आते ही कहा
शादाँ आ कुछ पढ़ के सुना
गुम थी इक मुद्दत से किताब
क्या देती इस वक़्त जवाब
दो बहनें थीं शादाँ की
छोटी नन्ही मुन्नी सी
नाम था मंझली का सीमाँ
गुड़िया सी नन्ही नादाँ
वो बोली ऐ अब्बा जी
अब तो पढ़ती हूँ मैं भी
बिल्ली है सी ए टी कैट
चूहा है आर ए टी रैट
मुँह माउथ है नाक है नोज़
और गुलाब का फूल है रोज़
मैं ने अब्बा जी देखा
ख़ूब सबक़ है याद किया
शादाँ ने उस वक़्त कहा
मैं ने ही तो सिखाया था
लेकिन अब्बा ने चुप चाप
खोला बॉक्स को उठ कर आप
इस में जो चीज़ें निकलें
सारी सीमाँ को दे दें
इक चीनी की गुड़िया थी
इक जादू की पुड़िया थी
इक नन्ही सी थी मोटर
आप ही चलती थी फ़र-फ़र
गेंदों का इक जोड़ा था
इक लकड़ी का घोड़ा था
इक सीटी थी इक बाजा
एक था मिट्टी का राजा
शादाँ को कुछ भी न मिला
यानी खेल की पाई सज़ा
अब वो ग़ौर से पढ़ती है
पूरे तौर से पढ़ती है
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