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फ़रेब

MORE BYअली सरदार जाफ़री

    रोचक तथ्य

    15/अगस्त और उसके बाद

    (1)

    ना-गहाँ शोर हुआ

    लो शब-ए-तार-ए-ग़ुलामी की सहर पहुँची

    उँगलियाँ जाग उठीं

    बरबत ताऊस ने अंगड़ाई ली

    और मुतरिब की हथेली से शुआएँ फूटीं

    खिल गए साज़ में नग़्मों के महकते हुए फूल

    लोग चिल्लाए कि फ़रियाद के दिन बीत गए

    राहज़न हार गए

    राह-रौ जीत गए

    क़ाफ़िले दूर थे मंज़िल से बहुत दूर मगर

    ख़ुद-फ़रेबी की घनी छाँव में दम लेने लगे

    चुन लिया राह के रेज़ों को ख़ज़फ़-रेज़ों को

    और समझ बैठे कि बस लाल-ओ-जवाहर हैं यही

    राहज़न हँसने लगे छुप के कमीं-गाहों में

    हम-नशीं ये था फ़रंगी की फ़िरासत का तिलिस्म

    रहबर-ए-क़ौम की नाकारा क़यादत का फ़रेब

    हम ने आज़ुर्दगी-ए-शौक़ को मंज़िल जाना

    अपनी ही गर्द-ए-सर-ए-राह को महमिल जाना

    गर्दिश-ए-हल्का-ए-गर्दाब को साहिल जाना

    अब जिधर देखो उधर मौत ही मंडलाती है

    दर-ओ-दीवार से रोने की सदा आती है

    ख़्वाब ज़ख़्मी हैं उमंगों के कलेजे छलनी

    मेरे दामन में हैं ज़ख़्मों के दहकते हुए फूल

    ख़ून में लुथड़े हुए फूल

    मैं जिन्हें कूचा-ओ-बाज़ार से चुन लाया हूँ

    क़ौम के राहबरो राहज़नो

    अपने ऐवान-ए-हुकूमत में सजा लो इन को

    अपने गुल्दान-ए-सियासत में लगा लो इन को

    अपनी सद-साला तमन्नाओं का हासिल है यही

    मौज-ए-पायाब का साहिल है यही

    तुम ने फ़िरदौस के बदले में जहन्नम ले कर

    कह दिया हम से गुलिस्ताँ में बहार आई है

    चंद सिक्कों के एवज़ चंद मिलों की ख़ातिर

    तुम ने नामूस-ए-शहीदान-ए-वतन बेच दिया

    बाग़बाँ बन के उठे और चमन बीच दिया

    (2)

    कौन आज़ाद हुआ?

    किस के माथे से सियाही छूटी

    मेरे सीने में अभी दर्द है महकूमी का

    मदर-ए-हिन्द के चेहरे पे उदासी है वही

    ख़ंजर आज़ाद हैं सीनों में उतरने के लिए

    मौत आज़ाद है लाशों पे गुज़रने के लिए

    चोर-बाज़ारों में बद-शक्ल चुड़ैलों की तरह

    क़ीमतें काली दुकानों पे खड़ी रहती हैं

    हर ख़रीदार की जेबों को कतरने के लिए

    कार-ख़ानों पे लगा रहता है

    साँस लेती हुई लाशों का हुजूम

    बीच में उन के फिरा करती है बेकारी भी

    अपना खूँ-ख़्वार दहन खोले हुए

    और सोने के चमकते सिक्के

    डंक उठाए हुए फन फैलाए

    रूह और दिल पे चला करते हैं

    मुल्क और क़ौम को दिन रात डसा करते हैं

    रोटियाँ चकलों की क़हबाएँ हैं

    जिन को सरमाया के दल्लालों ने

    नफ़अ-ख़ोरी के झरोकों में सजा रखा है

    बालियाँ धान की गेहूँ के सुनहरे ख़ोशे

    मिस्र यूनान के मजबूर ग़ुलामों की तरह

    अजनबी देस के बाज़ारों में बिक जाते हैं

    और बद-बख़्त किसानों की बिलक्ती हुई रूह

    अपने अफ़्लास में मुँह ढाँप के सो जाती है

    हम कहाँ जाएँ कहें किस से कि नादार हैं हम

    किस को समझाएँ ग़ुलामी के गुनहगार हैं हम

    तौक़ ख़ुद हम ने पहना रक्खा है अरमानों को

    अपने सीने में जकड़ रक्खा तूफ़ानों को

    अब भी ज़िंदान-ए-ग़ुलामी से निकल सकते हैं

    अपनी तक़दीर को हम आप बदल सकते हैं

    (3)

    आज फिर होती हैं ज़ख़्मों से ज़बानें पैदा

    तीरा-ओ-तार फ़ज़ाओं से बरसाता है लहू

    राह की गर्द के नीचे से उभरते हैं क़दम

    तारे आकाश पे कमज़ोर हबाबों की तरह

    शब के सैलाब-ए-सियाही में बहे जाते हैं

    फूटने वाली है मज़दूर के माथे से किरन

    सुर्ख़ परचम उफ़ुक़-ए-सुब्ह पे लहराते हैं

    स्रोत :
    • पुस्तक : azadi ke bad urdu nazm (पृष्ठ 177)
    • रचनाकार : shamim hanfi and mazhar mahdi
    • प्रकाशन : qaumi council bara-e-farogh urdu (2005)
    • संस्करण : 2005

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