हम गुनहगार औरतें
ये हम गुनहगार औरतें हैं
जो अहल-ए-जुब्बा की तमकनत से न रोब खाएँ
न जान बेचें
न सर झुकाएँ
न हाथ जोड़ें
ये हम गुनहगार औरतें हैं
कि जिन के जिस्मों की फ़स्ल बेचें जो लोग
वो सरफ़राज़ ठहरें
नियाबत-ए-इम्तियाज़ ठहरें
वो दावर-ए-अहल-ए-साज़ ठहरें
ये हम गुनहगार औरतें हैं
कि सच का परचम उठा के निकलें
तो झूट से शाहराहें अटी मिले हैं
हर एक दहलीज़ पे सज़ाओं की दास्तानें रखी मिले हैं
जो बोल सकती थीं वो ज़बानें कटी मिले हैं
ये हम गुनहगार औरतें हैं
कि अब तआक़ुब में रात भी आए
तो ये आँखें नहीं बुझेंगी
कि अब जो दीवार गिर चुकी है
उसे उठाने की ज़िद न करना!
ये हम गुनहगार औरतें हैं
जो अहल-ए-जुब्बा की तमकनत से न रोब खाएँ
न जान बेचें
न सर झुकाएँ न हाथ जोड़ें!
- पुस्तक : Hanste Rahe Hum Udas Hokar
- प्रकाशन : रेख़्ता पब्लिकेशंस
- पुस्तक : kulliyat dusht-e-qais main laila (पृष्ठ 972)
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