हसन कूज़ा-गर (2)
ऐ जहाँ-ज़ाद,
नशात उस शब-ए-बे-राह-रवी की
मैं कहाँ तक भूलूँ?
ज़ोर-ए-मय था कि मेरे हाथ की लर्ज़िश थी
कि उस रात कोई जाम गिरा टूट गया
तुझे हैरत न हुई!
कि तिरे घर के दरीचों के कई शीशों पर
उस से पहले की भी दुर्ज़ें थीं बहुत
तुझे हैरत न हुई!
ऐ जहाँ-ज़ाद,
मैं कूज़ों की तरफ़ अपने तग़ारों की तरफ़
अब जो बग़दाद से लौटा हूँ
तो मैं सोचता हूँ
सोचता हूँ तू मेरे सामने आईना रही
सर-ए-बाज़ार दरीचे में सर-ए-बिस्तर-ए-संजाब कभी
तू मेरे सामने आईना रही
जिस में कुछ भी नज़र आया न मुझे
अपनी ही सूरत के सिवा
अपनी तन्हाई-ए-जाँ-काह की दहशत के सिवा!
लिख रहा हूँ तुझे ख़त
और वो आईना मेरे हाथ में है
इस में कुछ भी नज़र आता नहीं
अब एक ही सूरत के सिवा!
लिख रहा हूँ तुझे ख़त
और मुझे लिखना भी कहाँ आता है?
लौह-ए-आईना पे अश्कों की फव्वारों ही से
ख़त क्यूँ न लिखूँ?
ऐ जहाँ-ज़ाद,
नशात उस शब-ए-बे-राह-रवी की
मुझे फिर लाएगी?
वक़्त क्या चीज़ है तू जानती है?
वक़्त इक ऐसा पतिंगा है
जो दीवारों पे आईनों पे
पैमानों पे शीशों पे
मिरे जाम ओ सुबू मेरे तग़ारों पे
सदा रेंगता है
रेंगते वक़्त के मानिंद कभी
लौट के आएगा हसन कूज़ा-गर-ए-सोख़्ता-जाँ भी शायद!
अब जो लौटा हूँ जहाँ-ज़ाद
तो मैं सोचता हूँ!
शायद इस झोंपड़े की छत पे ये मकड़ी मिरी महरूमी की
जिसे तनती चली जाती है वो जाला तो नहीं हूँ मैं भी?
ये सियह झोंपड़ा में जिस में पड़ा सोचता हूँ
मेरे अफ़्लास के रौंदे हुए अज्दाद की
बस एक निशानी है यही
उन के फ़न उन की मईशत की कहानी है यही
मैं जो लौटा हूँ तो वो सोख़्ता-बख़्त
आ के मुझे देखती है
देर तक देखती रह जाती है
मेरे इस झोंपड़े में कुछ भी नहीं
खेल इक सादा मोहब्बत का
शब ओ रोज़ के इस बढ़ते हुए खोखले-पन में जो कभी खेलते हैं
कभी रो लेते हैं मिल कर कभी गा लेते हैं
और मिल कर कभी हँस लेते हैं
दिल के जीने के बहाने के सिवा और नहीं
हर्फ़ सरहद हैं जहाँ-ज़ाद मआनी सरहद
इश्क़ सरहद है जवानी सरहद
दिल के जीने के बहाने के सिवा और नहीं
दर्द-ए-महरूमी की
तन्हाई की सरहद भी कहीं है कि नहीं?
मेरे इस झोंपड़े में
कितनी ही ख़ुशबुएँ हैं
जो मेरे गिर्द सदा रेंगती हैं
उसी इक रात की ख़ुश्बू की तरह रेंगती हैं
दर ओ दीवार से लिपटी हुई इस गिर्द की ख़ुश्बू भी है
मेरे अफ़्लास की तन्हाई की
यादों की तमन्नाओं की ख़ुशबुएँ भी
फिर भी इस झोंपड़े में कुछ भी नहीं
ये मेरा झोंपड़ा तारीक है गंदा है परागंदा है
हाँ कभी दूर दरख़्तों से परिंदों की सदा आती है
कभी इन्जीरों के ज़ैतूनों के बाग़ों की महक आती है
तो मैं जी उठता हूँ
तो मैं कहता हूँ के लो आज नहा कर निकला!
वर्ना इस घर में कोई सेज नहीं इत्र नहीं है
कोई पंखा भी नहीं,
तुझे जिस इश्क़ की ख़ू है
मुझे उस इश्क़ का यारा भी नहीं!
तू हँसेंगी ऐ जहाँ-ज़ाद अजब बात
कि जज़्बात का हातिम भी मैं
और अशिया का परस्तार भी मैं
और सर्वत जो नहीं उस का तलबगार भी मैं!
तू जो हँसती रही उस रात तज़ब्ज़ुब पे मेरे
मेरी दो-रंगी पे फिर से हँस दे!
इश्क़ से किस ने मगर पाया है कुछ अपने सिवा?
ऐ जहाँ-ज़ाद
है हर इश्क़ सवाल ऐसा के आशिक़ के सिवा
उस का नहीं कोई जवाब
यही काफ़ी है कि बातिन की सदा गूँज उठे!
ऐ जहाँ-ज़ाद
मेरे गोश-ए-बातिन की सदा ही थी
मेरे फ़न की ठठुरती हुई सदियों
के किनारे गूँजी
तेरी आँखों के समुंदर का किनारा ही था
सदियों का किनारा निकला
ये समुंदर जो मिरी ज़ात का आईना है
ये समुंदर जो मेरे कूज़ों के बिगड़े हुए
बनते हुए सीमाओं का आईना है
ये समुंदर जो हर इक फ़न का
हर इक फ़न के परस्तार का
आईना है
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