हवा कहती रही आओ
चलो उस शाख़ को छू लें
इधर उस पेड़ के पत्तों में छुप कर तालियाँ पीटें
गिरें उठें लुढ़क कर नहर में उतरें नहाएँ
मख़मलीं सब्ज़े ये नंगे पाँव चल कर दूर तक जाएँ
हवा कहती रही आओ
मगर मैं ख़ुश्क छागल अपने दाँतों में दबाए
प्यास की बरहम सिपह से लड़ रहा था मैं कहाँ जाता
मुझे सूरज के रथ से आतिशीं तीरों का आना
और छागल से हुमक कर आब का गिरना
किसी बच्चे का रोना और पानी माँगना भूला नहीं था मैं कहाँ जाता
मैं अपने हाथ की उभरी रगों में क़ैद
अपनी आँख की तपती हुई ख़ाक-ए-सियह में जज़्ब था यकसर
मुझे इक जुरआ-ए-आब सफ़ा दरकार था और मेरे बच्चे ने
सदा दी थी मुझे आओ ख़ुदारा अब तो आ जाओ
कि मेरे होंट अब फट भी चुके
आँखों का अमृत सूख कर बादल बना उड़ भी गया
हवा कहती रही आओ
ये बंधन तोड़ दो प्यारे
मगर में हाथ की उभरी रगों में क़ैद
अपनी आँख की तपती हुई ख़ाक-ए-सियह में जज़्ब क्या करता
कहाँ जाता
- पुस्तक : Nirdbaan (पृष्ठ 49)
- रचनाकार : Wazir Agha
- प्रकाशन : Nusrat Anwar (1979)
- संस्करण : 1979
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