है जिन में ज़ौक़-ए-आज़ादी वो ज़िंदानों में रहते हैं
वही बस्ती बसाते हैं जो वीरानों में रहते हैं
सुकूँ मक़्सूद है जिन को उन्हें जीना नहीं आता
शुऊर-ए-ज़िंदगी जिन में है तूफ़ानों में रहते हैं
मिटा कर अपनी हस्ती दर्स दे जाते हैं आलम को
शहीदान-ए-वफ़ा के ज़िक्र अफ़्सानों में रहते हैं
तबीअ'त किस क़दर आज़ाद है इन मरने वालों की
कि जिन की ख़ाक के ज़र्रे बयाबानों में रहते हैं
हयात-ए-जाविदाँ मिलती है हस्ती के मिटाने से
मसर्रत उन का हिस्सा है जो ग़म-ख़ानों में रहते हैं
जो सोज़-ए-इश्क़ रखते हैं लगी रहती है लौ उन को
तजल्ली ढूँडने वाले ही परवानों में रहते हैं
जसारत ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा की पैदा कर निगाहों में
नुमूद-ए-हुस्न के अनवार पैमानों में रहते हैं
वो हम-मशरब वो हम-सोहबत जिन्हें अपना समझते थे
मिसाल-ए-सब्ज़ा-ए-बेगाना बेगानों में रहते हैं
क़फ़स का दर बना देते हैं रश्क-ए-बाब-ए-आज़ादी
जो अहल-ए-होश हैं 'तकमील' ज़िंदानों में रहते हैं