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हयात-ए-जाविदाँ

तकमील रिज़वी लखनवी

हयात-ए-जाविदाँ

तकमील रिज़वी लखनवी

MORE BYतकमील रिज़वी लखनवी

    है जिन में ज़ौक़-ए-आज़ादी वो ज़िंदानों में रहते हैं

    वही बस्ती बसाते हैं जो वीरानों में रहते हैं

    सुकूँ मक़्सूद है जिन को उन्हें जीना नहीं आता

    शुऊर-ए-ज़िंदगी जिन में है तूफ़ानों में रहते हैं

    मिटा कर अपनी हस्ती दर्स दे जाते हैं आलम को

    शहीदान-ए-वफ़ा के ज़िक्र अफ़्सानों में रहते हैं

    तबीअ'त किस क़दर आज़ाद है इन मरने वालों की

    कि जिन की ख़ाक के ज़र्रे बयाबानों में रहते हैं

    हयात-ए-जाविदाँ मिलती है हस्ती के मिटाने से

    मसर्रत उन का हिस्सा है जो ग़म-ख़ानों में रहते हैं

    जो सोज़-ए-इश्क़ रखते हैं लगी रहती है लौ उन को

    तजल्ली ढूँडने वाले ही परवानों में रहते हैं

    जसारत ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा की पैदा कर निगाहों में

    नुमूद-ए-हुस्न के अनवार पैमानों में रहते हैं

    वो हम-मशरब वो हम-सोहबत जिन्हें अपना समझते थे

    मिसाल-ए-सब्ज़ा-ए-बेगाना बेगानों में रहते हैं

    क़फ़स का दर बना देते हैं रश्क-ए-बाब-ए-आज़ादी

    जो अहल-ए-होश हैं 'तकमील' ज़िंदानों में रहते हैं

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