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इक सवाल ख़ुदा-ए-बरतर से

साजिदा ज़ैदी

इक सवाल ख़ुदा-ए-बरतर से

साजिदा ज़ैदी

MORE BYसाजिदा ज़ैदी

    हम इस ज़मीन आसमाँ के दरमियाँ

    हैरान हैं और सर-गराँ

    ख़ुदा-ए-दो-जहाँ!

    हर्फ़-ए-कुन के राज़-दाँ!

    मम्बा-ए-कौन-ओ-मकाँ!

    इतना तो बतला दे

    कोई ऐसी भी दुनिया है

    जहाँ इंसानियत की साफ़ पेशानी पे

    इल्म फ़न की पौ फटती हो और

    फ़िक्र नज़र के आईनों से

    नूर की किरनें उबलती हों

    दिलों में ख़ैर बरकत की दुआएँ गूँजती हों

    सुब्ह दम आकाश के नीलम तले

    जाम-ए-हक़ीक़त पी के जीने की तमन्ना रक़्स करती हो

    जहाँ एहसास के कोहरे से

    फ़िक्र-ए-नौ के तारे झिलमिलाते हों

    जहाँ होंटों पे हर्फ़-ए-आगही की जोत हो

    आँखों से हैरत

    ज़ेहन से विज्दान के चश्मे उबलते हों,

    जहाँ रातों के सन्नाटे में

    दिल महव-ए-नियाज़-ओ-नाज़ रहता हो

    फ़ज़ा-ए-बे-कराँ के सहर का हमराज़ रहता हो

    मोहब्बत, इश्क़, दिलदारी, वफ़ा उनवान-ए-हस्ती हों

    उख़ूवत नर्म-गुफ़्तारी अता-ए-पैमाना-ए-दिल हों

    ख़ुदा-ए-लम-यज़ल बतला

    कोई ऐसी भी दुनिया है

    कहीं ऐसा भी होता है

    सियासत की फ़ुसूँ-साज़ी

    तिजारत की ज़ियाँ-कारी

    हवस की गर्म-बाज़ारी

    किसी अय्यार-ए-क़ुव्वत की जहाँ-दारी

    में दम घुटता है

    हर लम्हा अज़ाब-ए-जावेदाँ मालूम होता है

    ''ख़ुदा-वंद! ये तेरे सादा दिल बंदे कहाँ जाएँ?''

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    अज़रा नक़वी

    अज़रा नक़वी,

    अज़रा नक़वी

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