इस्म-ए-आज़म
इक्कीस साल उम्र थी उस की बस
अभी उस ने गोया ज़िंदगी को आँख भर के देखा भी न था
खेलने कूदने के दिन थे कि ज़माने की रीत के मुताबिक़
चट मंगनी पट ब्याह हो गया
और तीन साल में तीन बच्चे भी पैदा हो गए
फिर अचानक बेचारी को वो बीमारी मिल गई
जिस के पंजे से कोई ख़ुश-नसीब ही छुटता है
मुझे बरसों पहले गाँव में अपनी चितकबरी बकरी याद आ गई
जिस ने एक झोली में पाँच बच्चे दिए थे
और चंद रोज़ बा'द मर गई थी
मरी हुई बकरी के थनों से इस के पाँचों बच्चे
दूध की आख़िरी बूँद तक निचोड़ लेने के चक्कर में
एक दूसरे से गुत्थम-गुत्था हो रहे थे
मैं ने ख़ुदा से कहा
ग़ज़ब के सितम-ज़रीफ़ हो तुम भी
आदमी को इतना कमज़ोर पैदा किया है
बकरी का बच्चा तो जन्म लेते ही चार टाँगों पर खड़ा हो जाता है
मगर आदमी का बच्चा बरस-हा-बरस तक यतीमों की तरह सहारे ढूँढता फिरता है
और फिर तुम ये सहारे भी छीन लेते हो
चलो मरहूम बाप की जगह तो तुम ख़ुद पुर कर लेते हो
कि आसमानी बाप कहलाने का तुम्हें अज़ल से शौक़ है
लेकिन ये नौ-मौलूद और नौ-ख़ेज़ बच्चों को तुम माओं से किस खाते में महरूम कर देते हो
हँसा बहुत हँसा
मैं कहे बग़ैर न रह सका कि आफ़रीन है
दूसरे के दुख पर इस तरह खिले बंदों तो सफ़्फ़ाक सियासत-दाँ भी नहीं हँसते
अचानक मेरा शाना झिंझोड़ कर बोला ज़रा मेरी तरफ़ देखो
मुझे गुमान था कि तो रात और क़ुरआन के औराक़ से निकल कर
एक पुर-जलाल मर्दाना पैकर मेरे सामने होगा
मगर वहाँ तो एक हरी-भरी औरत खड़ी थी
जिस की छातियों से दूध की धारें फ़व्वारे की तरह फूट रही थीं
क़रीब था कि मैं ग़श खा कर गिर जाता
इसी ने मुझे सँभाला दिया
और धीरे से कहा
मैं बाप भी हूँ आसमानों में
मैं माँ भी हूँ ज़मीन पर
दोबारा उस की जानिब देखा
आँखों से दो गर्म गर्म आँसू मेरे चेहरे पर टपक पड़े
मैं ने कहा पहले तुम हँस रहे थे
अब तुम रो रही हो
कहा हँसी और रोने का एक ही नाम है
ज़िंदगी
मैं ने कहा तुम्हारे मर्दाना नामों का तो शुमार नहीं
लोगों को निन्नयानवे के फेरे में डाल रक्खा है तुम ने
मुर्शिदों से इस्म-ए-आज़म पूछते पूछते बेहाल हो जाते हैं
अब तुम्हारे ज़नाना नाम भी ढूँडने पड़ेंगे
ज़ेर-ए-लब मुस्कुरा के कहा
पैदा होते ही तुम सब के मुँह पर मेरा इस्म-ए-आज़म आ जाता है
हर कोई अज़-ख़ुद पुकार उठता है
माँ
और फिर अपनी माँ की चाहत में सब की माँ की भूल जाता है
नाम भी याद नहीं रहता उस का
- पुस्तक : din kaa phool (पृष्ठ 53)
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