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जहाँ-ज़ाद

इशरत आफ़रीं

जहाँ-ज़ाद

इशरत आफ़रीं

MORE BYइशरत आफ़रीं

    हसन-कूज़ा-गर

    तू ने जाना कि मैं

    जिस्म-ओ-जाँ के त'अल्लुक़ की रौशन गुज़रगाह से

    इक जहाँ का सफ़र झेल कर

    इस रिफ़ाक़त की दहलीज़ तक आई हूँ

    हसन काश तू जान सकता

    कि इस सहन-ए-ख़ाना से दहलीज़ तक के सफ़र में

    जहाँ-ज़ाद को क्यों ज़माने लगे हैं

    हसन

    इस सफ़र में जहाँ-ज़ाद को एक इक गाम पर

    वक़्त के ताज़ियाने लगे हैं

    हसन

    वक़्त मालिक भी है देवता भी

    मुहाफ़िज़ भी है और ख़्वाजा-सरा भी

    ये देखा है मैं ने

    कि जब भी दरीचों में ताज़ा शगूफ़ा खिला है

    हवा से वो हँस कर ज़रा सा गले भी मिला है

    तो ख़्वाजा-सरा की नज़र से कहाँ बच सका है

    मगर देख मुझ को

    कि मैं ने यहाँ ठीक नौ साल तक

    फूल काढ़े हैं ख़्वाबों के बिस्तर पे लेकिन

    अभी तक कोई इन पे सोया नहीं

    फूल ताज़ा शगुफ़्ता और आज़ुर्दा हैं

    मैं ने नौ साल सूरत-गरी की है तेरे हर इक लम्स की

    रात भर मैं ने आँखें भिगोई हैं कूज़ों में और सुब्ह-दम

    हल्क़ को तर किया आँसुओं से बहुत

    ये मसाफ़त

    ये नौ साल की बे-महाबा मसाफ़त

    तिरे दर के आगे मुझे खींच लाई

    मगर तू यहाँ चाक पर अपनी धुन में मगन है

    निगाहें उठा

    देख तो मैं जहाँ-ज़ाद तेरी तिरे सामने हूँ

    मगर तू ने सच ही कहा था

    ज़माना जहाँ-ज़ाद वो चाक है

    जिस पे मीना-ओ-जाम-ओ-सुबू और फ़ानूस-ओ-गुलदां की मानिंद

    बनते बिगड़ते हैं इंसाँ

    सो अब हम जो सदियों की लम्बी मसाफ़त से लौटे हैं

    तू अपने रंजूर कूज़ों में जूझा हुआ है

    ये तेरा क़ुसूर और मेरी ख़ता है

    कोई कूज़ा-गर तो हमारा भी होगा

    सो ये उस की हिकमत

    कि उस ने हमें चाक पर ढालते वक़्त

    लम्हों का फेर इस नज़ाकत से रक्खा

    कि हम अपनी अपनी जगह सिर्फ़ शश्दर खड़े थे

    कई दस्त-ए-चाबुक के बे-जान पुतले

    मिरे और तिरे दरमियाँ सज गए थे

    सो ये उस की हिकमत

    मगर वक़्त इस दर्जा सफ़्फ़ाक क्यों है

    ये मश्शाता-ए-ज़िंदगी इतनी चालाक क्यों है

    मिरे और तिरे दरमियाँ नौ बरस जिस ने ला कर बिछाए

    ये नौ साल किस तरह मैं ने बिताए

    कि साहिल से कश्ती तक आते हुए

    जैसे तख़्ते के हमराह दिल डगमगाए

    वही नौ बरस

    जो मिरे और तिरे दरमियाँ वक़्त की किर्चियाँ हैं

    ज़माना भी कैसी 'अजब कहकशाँ है

    ये दुनिया-ए-सय्यारगाँ है कि जिस में

    हज़ारों कवाकिब

    मुसलसल किसी चाक पर घूमते हैं

    ये अज्साम के गिर्द अज्साम का रक़्स ही ज़िंदगी है मिरी जाँ

    मिरी जान तू चाक के साथ मिट्टी के रिश्ते को पहचानता था

    हसन तू ने मिट्टी के बे-जान पुतलों से

    तख़्लीक़ के जाँ-गुसिल मरहलों में

    सदा गुफ़्तुगू

    सौ तरह गुफ़्तुगू की

    ज़िहानत के पुतले मोहब्बत के ख़ालिक़

    फ़क़त ये बता दे

    कि तेरे 'अनासिर के अज्ज़ा-ए-तर्कीबी में

    वाहिमा कैसे आया

    हसन तू वहाँ झोंपड़े में

    अकेला गले मिल के रोया था किस से

    लबीब और तू और मैं

    और हक़ीक़त में कोई नहीं था

    तिरा वाहिमा

    मेरे लब मेरे गेसू से लिपटा रहा था

    लबीब एक साया

    जिसे तू ने रोग अपनी जाँ का बनाया

    ये साया कहीं गर हक़ीक़त भी होता

    तो आख़िर को तू इस हक़ीक़त से क्यों बे-ख़बर था

    कि हर जिस्म के साथ इक आफ़्ताब और महताब लाज़िम

    ये तसलीस क़ाएम है क़ाएम रहेगी

    हसन मैं तिरे सामने आइना थी

    तिरे हिज्र और वस्ल का आइना

    इंहिमाक-ओ-त'अल्लुक़ की मिट्टी से गूँधे हुए जिस्म को

    तेरी आँखों की हिद्दत ने चमकाया था

    तेरी ख़ल्वत की हैरत ने वो रंग-ओ-रोग़न किए थे

    कि आईने शश्दर खड़े रह गए थे

    मगर तेरी ख़ल्वत की हैरत में वहशत का जो शाइबा था

    निगाहों से मेरी कहाँ छुप सका था

    मिरे और तिरे दरमियाँ वस्ल की हर घड़ी में

    जाने कहाँ से

    वही सोख़्ता-बख़्त तेरी

    कि जो जाँ-फ़िशानी के शो'लों से दहके हुए

    ज़िंदगी के अबद-ताब तन्नूर पर

    उँगलियाँ तेरे बच्चों की थामे खड़ी

    भूक से बरसर-ए-जंग थी

    जिस के नज़दीक ये

    तेरे कूज़े तिरा फ़न तिरी आग सब

    मेरी आँखें मिरे फूल और ख़्वाब सब

    ज़िंदगी के अबद-ताब तन्नूर की राख थे

    तेरी इस सोख़्ता-बख़्त को क्या ख़बर

    जब ज़मीं अपने महवर की तज्दीद में

    हर्फ़-ए-ला से गुज़र जाएगी

    तो हज़ारों बरस बा'द भी

    ये अज़ल के घरोंदों की मिट्टी में मदफ़ून

    फूल और बूटे ये कूज़े

    और उन में उन्ही क़ाफ़ आँखों से छलके हुए

    सुर्ख़ पानी की तलछट

    किसी कूज़ा-गर के जवाँ लम्स से जी उठे तो

    जहाँ-ज़ाद उस के लिए फिर जनम लेगी

    और नौ बरस रक़्स करते गुज़र जाएँगे

    तेरी इस सोख़्ता-बख़्त को क्या ख़बर

    वो रात

    वो हलब की कारवाँ-सरा का हौज़

    जिस को मैं ने जिस्म-ओ-जाँ की ख़ुशबुएँ कशीद कर के

    क़तरा-क़तरा नौ बरस में आँसुओं से पुर किया

    वो एक रात सिर्फ़ एक रात में

    तमाम ख़ुश्क हो गया

    हम अपने वस्ल की तमाज़तों में ऐसे जल-बुझे

    कि राख तक नहीं बची

    ये एक जाँ की तिश्नगी

    मुझे तुझे ब-यक-ज़माँ

    भला कहाँ कहाँ खींचती फिरी

    मगर ये तू ने क्या कहा

    कि तेरे जैसी 'औरतें जहान-ज़ाद

    ऐसी उलझनें हैं जिन को आज तक कोई नहीं सुलझा सका

    कि 'औरतों की साख़्त है वो तंज़ अपने आप पर

    जवाब जिन का हम नहीं

    तो फिर ये जाम-ओ-मीना-ओ-सुबू-ओ-हौज़-ओ-रूद-ए-नील

    इस ज़मीं की गोद में

    अज़ल के हर्फ़-गीर ताबनाक ख़्वाब के लिए

    कहीं भी कुछ रक़म नहीं

    हसन

    चाक पर से ज़रा अपनी नज़रें हटा

    तू मिरे नौ बरस तक बनाए गए फूल तो देख ले

    फूल ताज़ा शगुफ़्ता और आज़ुर्दा हैं

    यूँ हो कि इन्हें

    भूक और मुफ़लिसी के सताए हुए

    मेरे बच्चे भी नीलाम कर आएँ जा कर कहीं

    तेरे कूज़ों के मानिंद बग़दाद में

    हसन

    दामन-ए-वक़्त पर जितने फूल और बूटे सजे हैं

    जहाँ-ज़ाद की ज़ख़्मी पोरों ने

    रंग उन में अपने जुनूँ के भरे हैं

    ये तावान हैं चम्पई उँगलियों का

    तिरे जाम-ओ-मीना पे

    जिस ख़ाल-ओ-ख़द की नज़ाकत की परछाईयाँ थीं

    तुझे क्या ख़बर ये किन आँखों की बीनाइयाँ थीं

    हसन ये मोहब्बत

    कि जिस को तिरी सोख़्ता-बख़्त गर्दान्ती है

    अमीरों की बाज़ी

    तो मेरे तईं ये अमीरों की बाज़ी कहाँ

    सिर्फ़ बाज़ीगरी थी

    मोहब्बत हमेशा से मुफ़्लिस का सरमाया-ए-जाँ रही है

    यही तो वो पूँजी है

    जिस तक अमीरों के हाथ अब भी पहुँचे नहीं हैं

    तुझे ये गुमाँ था

    कि 'औरत मोहब्बत की बाज़ी में बे-जान पत्ते की सूरत

    किसी दस्त-ए-चाबुक की मरहून-ए-मिन्नत

    वो इस खेल में एक मोहरे की सूरत

    कि जब जिस ने चाहा

    इसे एक घर से उठा कर

    किसी दूसरे घर का मालिक बनाया

    कि 'औरत फ़क़त एक पत्थर की मूरत

    ये तस्वीर-ए-हैरत

    यूँही चुप खड़ी है

    यूँही चुप रहेगी

    मगर यूँ नहीं है

    हसन तू ने देखा

    कि मैं क़ैद-ए-औहाम बंद-ए-रिवायात में

    बूढ़े 'अत्तार यूसुफ़ की दुक्कान पर

    अपनी आँखें तुझे नज़्र करती रही

    बूढ़ा 'अत्तार वो कीमिया-गर

    कि जिस ने ज़मानों के जंगल से

    चेहरों के फूल और बूटे चुने

    वो मुझे और तुझे जानता था मगर

    मैं ने बाज़ार में

    तुझ से आँखों का और दिल का सौदा किया

    हसन

    मेरे एक इक दरीचे पे

    कोहना रिवायात ज़ालिम 'अक़ाएद का जंगल उगा था

    हसन

    काश तू मेरी आँखों से मेरे दरीचे को तकता

    तो ये जान सकता

    जहाँ तू खड़ा था वहाँ एक इक दर्ज़ से

    मेरी आँखें मिरा जिस्म

    छन छन के

    कट कट के गिरता रहा था

    स्रोत :
    • पुस्तक : कुल्लियात ज़र्द पत्तों का बन (पृष्ठ 136)
    • रचनाकार : इशरत आफ़रीं
    • प्रकाशन : संग-ए-मील पब्लिकेशन्स, लाहौर (2017)

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