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काग़ज़ी है पैरहन

साजिदा ज़ैदी

काग़ज़ी है पैरहन

साजिदा ज़ैदी

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    रोचक तथ्य

    (15 August, 1980)

    ये बे-नूर अंधी सियासत का बाज़ार है

    मस्लहत की दुकाँ है

    शनासा यहाँ अजनबी हैं

    मसर्रत के लम्हे भी बे-जान हैं

    जिस्म-ओ-जाँ की हक़ीक़त नहीं हैं

    रिया-कार सोचों के

    जामिद हिसारों में लिपटी हुई

    सर-ज़मीन कह रही है

    कि ये महफ़िल-ए-तंग-दामाँ है

    साक़ी का ए'जाज़

    मुतरिब की आवाज़

    और नारा-ए-सरमदी कुछ नहीं है यहाँ

    तो बस

    ज़ौक़-ए-हस्ती का

    बेदारी-ए-आरज़ू का असासा समेटो

    उन्हीं बे-नवाई के ग़ारों में खो जाओ जा कर

    जहाँ कोने कोने में

    हर कुंज में हर-क़दम पर

    सुकूत-ए-मुकम्मल का आसेब है

    शोर-ओ-ग़ौग़ा का जंगल है

    और गुलशन-ए-नुत्क़ बर्ग-ओ-बार-ओ-समर है

    कि इस महबस-ए-फ़िक्र में ख़यालों की महशर-ख़िरामी

    अँधेरों उजालों की तकरार-ए-पैहम नहीं है

    इसी कुंज-ए-बे-गाँगी में छुपा लो दिल-ओ-जाँ

    जहाँ सहर-ख़ेज़ बेदार रूहें

    कभी नश्शा-ए-मय से सरशार थीं जो

    ख़ुमार-ए-तमन्ना गँवा कर

    सुबुक-नर्म-ख़्वाबों से दामन बचा कर

    कार-गाह-ए-हुनर से निगाहें चुरा कर

    ज़माने के नक़्श-ए-क़दम देखते देखते

    सो गई हैं

    कि वो बार-ए-हुर्रियत दीन-ओ-दिल से

    सुबुक-बार सी हो गई हैं

    अगर जान-ओ-दिल फिर भी

    बेदारी-ए-आरज़ू

    फ़ित्ना-साज़ी-ए-हक़-बीनी-ओ-गर्म-रफ़्तारी-ए-जुस्तजू पर मुसिर हूँ

    तो दीवार-ए-महबस के रौज़न को आँखें बना लो

    निगाहें उफ़ुक़ पर जमा लो

    स्रोत :
    • पुस्तक : Aatish Zeer-e-paa (पृष्ठ 38)
    • रचनाकार : Sajidah Zaidi
    • प्रकाशन : Sajidah Zaidi, Aligarah (1995)
    • संस्करण : 1995

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