ख़ाक-ए-हिंद
ऐ ख़ाक-ए-हिंद तेरी 'अज़्मत में क्या गुमाँ है
दरिया-ए-फ़ैज़-ए-क़ुदरत तेरे लिए रवाँ है
तेरी जबीं से नूर-ए-हुस्न-ए-अज़ल 'अयाँ है
अल्लह रे ज़ेब-ओ-ज़ीनत क्या औज-ए-‘इज़्ज़-ओ-शाँ है
हर सुब्ह है ये ख़िदमत ख़ुर्शीद-ए-पुर-ज़िया की
किरनों से गूँधता है चोटी हिमालया की
इस ख़ाक-ए-दिल-नशीं से चश्मे हुए हैं जारी
चीन-ओ-‘अरब में जिन से होती थी आब्यारी
सारे-जहाँ पे जब था वहशत का अब्र तारी
चश्म-ओ-चराग़-ए-‘आलम थी सर-ज़मीं हमारी
शम’-ए-अदब न थी जब यूनाँ की अंजुमन में
ताबाँ था मेहर-ए-दानिश इस वादी-ए-कुहन में
गौतम ने आबरू दी इस मा'बद-ए-कुहन को
सरमद ने इस ज़मीं पर सदक़े किया बदन को
अकबर ने जाम-ए-उल्फ़त बख़्शा इस अंजुमन को
सींचा लहू से अपने राणा ने इस चमन को
सब सूर-बीर अपने इस ख़ाक में निहाँ हैं
टूटे हुए खँडर हैं या उन की हड्डियाँ हैं
दीवार-ओ-दर से अब तक उन का असर 'अयाँ है
अपनी रगों में अब तक उन का लहू रवाँ है
अब तक असर में डूबी नाक़ूस की फ़ुग़ाँ है
फ़िरदौस-ए-गोश अब तक कैफ़िय्यत-ए-अज़ाँ है
कश्मीर से 'अयाँ है जन्नत का रंग अब तक
शौकत से बह रहा है दरिया-ए-गंग अब तक
अगली सी ताज़गी है फूलों में और फलों में
करते हैं रक़्स अब तक ताऊस जंगलों में
अब तक वही कड़क है बिजली की बादलों में
पस्ती सी आ गई है पर दिल के हौसलों में
गुल शम'-ए-अंजुमन है गो अंजुमन वही है
हुब्ब-ए-वतन नहीं है ख़ाक-ए-वतन वही है
बरसों से हो रहा है बरहम समाँ हमारा
दुनिया से मिट रहा है नाम-ओ-निशाँ हमारा
कुछ कम नहीं अज़ल से ख़्वाब-ए-गिराँ हमारा
इक लाश-ए-बे-कफ़न है हिन्दोस्ताँ हमारा
‘इल्म-ओ-कमाल-ओ-ईमाँ बर्बाद हो रहे हैं
'ऐश-ओ-तरब के बंदे ग़फ़लत में सो रहे हैं
ऐ सूर-ए-हुब्ब-ए-क़ौमी इस ख़्वाब से जगा दे
भूला हुआ फ़साना कानों को फिर सुना दे
मुर्दा तबी'अतों की अफ़्सुर्दगी मिटा दे
उठते हुए शरारे इस राख से दिखा दे
हुब्ब-ए-वतन समाए आँखों में नूर हो कर
सर में ख़ुमार हो कर दिल में सुरूर हो कर
शैदा-ए-बोस्ताँ को सर्व-ओ-समन मुबारक
रंगीं तबी'अतों को रंगीं सुख़न मुबारक
बुलबुल को गुल मुबारक गुल को चमन मुबारक
हम बेकसों को अपना प्यारा वतन मुबारक
ग़ुंचे हमारे दिल के इस बाग़ में खिलेंगे
इस ख़ाक से उठे हैं इस ख़ाक में मिलेंगे
- Nawa-e-Azadi
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