क्यूँ तिरा रह-गुज़ार याद आया
तेरी जन्नत से बहुत बेहतर है
मेरे महबूब का घर
ऐ ख़ुदा तू मुझे जन्नत के एवज़
घर दे दे मेरे महबूब का घर
वो करे लाख सितम मुझ पे
मैं सब सह लूँगा
मौसम-ए-सर्मा में वो आग लगा के दिल में
हाथ भी तापे गवारा है मुझे
दिल ने गर तंग किया
तो जिगर को मैं सदाएँ दूँगा
उस को भी तिश्ना जो पाया
तो भी फ़रियाद करूँगा
नहीं मैं
उम्र सब बीत गई
कूचा-ए-जानाँ के लगाते चक्कर
बा'द मरने के भी जी में है तवाफ़
उसी कूचे का तवाफ़
जिस में घर है मिरे महबूब का घर
उस का घर घर की तरह मेरे नहीं
एक दिन घर से जो घबरा के मैं सहरा पहूँचा
थी नहीं सहरा में वो वहशत वीरानी
जो मिरे घर में है
इस लिए घर मिरा अब मिरी जन्नत ठहरा
मेरे महबूब के कूचे का तवाफ़
और उस का घर नहीं दोनों ये मिले
तो ये कह देता हूँ मैं
ज़िंदगी यूँ भी गुज़र ही जाती
क्यूँ तिरा राहगुज़र याद आया
- पुस्तक : Banam-e-Ghalib (पृष्ठ 83)
- रचनाकार : Salahuddin Parvez
- प्रकाशन : Educational Publishing House, Aligrah (2011)
- संस्करण : 2011
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