महमूद दरवेश के लिए ख़त
मेरे प्यारे सोगवार
मुझे मालूम हुआ है
कि तुम्हारे लोगों से ज़िंदा रहने की जगह
और हक़ छीने जाने के बाइस
तुम्हारा दिल ख़ैरियत से नहीं रहा
मुझे मालूम हुआ है
कि तुम्हारे बहादुरों को धूप से बचाने वाली टोपियाँ
उन के ख़ून से सुर्ख़ और तुम्हारी साबिर औरतों के चेहरे
ग़म की शिद्दत से सियाह हो चुके हैं
मेरे भाई ज़ैतून के दरख़्तों पर लगे फूल
और तुम्हारे फूलों जैसे बच्चों से उमडने वाली
ख़ुशबू बारूद और धुवें की बू में
बदल चुकी है
और मेरे दोस्त
सुना है तुम्हारे सर पर हाथ रखने वाले
अब उन्हीं हाथों से तुम्हारे पैरों के नीचे ज़मीन खींच रहे हैं
अभी इस ख़त को लिखते हुए ऐसा लगा
जैसे कोई दरवाज़े पर है
मैं ने दरवाज़ा खोला
तो बाहर दूर तक कुछ न था
न कोई इमारत न कोई घर
न कोई मौसम न कोई दिन
न कोई शख़्स न कोई साया
न कोई ग़म न कोई आँसू
सिर्फ़ सुनाना और ख़ामोशी
मैं ने अपने दिल का दरवाज़ा बंद कर लिया
और वापस आ गया
यहाँ तमाम लोग मोम के सिपाहियों
और आँसू ज़हरीली मुस्कुराहटों में तब्दील हो गए हैं
महमूद दरवेश
तुम्हें तसल्ली देने और तुम्हारे लोगों की हिमायत में कहने
के लिए मेरे पास सिवाए एक नमनाक ख़ामोशी के
कुछ भी नहीं
या कुछ लोग जो मेरी तरह
अपनी मेज़ों की बंद दरवाज़े के सामने बैठे
उन के ख़ुद-ब-ख़ुद खुलने या किसी और न होने वाले मो'जिज़े के मुंतज़िर हैं
- पुस्तक : saarii nazmen (पृष्ठ 765)
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