मैं क्या कहता था
मैं ये कहता था कि नौहा न कहो
खेलती तितलियों हँसती हुई कलियों के क़सीदे लिक्खो
ये जो इम्काँ में कोई बास दमकती है
इसे लफ़्ज़ में लाओ किसी दिल में लिखे
लफ़्ज़ जो दिल के दबाओ को घटा देता है
दिल जो इक हश्र उठा देता है
मैं ये कहता था
चहकती हुई चिड़ियों के लिए गीत लिखो
उन दरख़्तों से लिपट जाऊँ
जो जलते हैं मगर साया-कुनाँ रहते हैं
वर्ना दिल सिर्फ़ ख़िज़ाँ रहते हैं
अब्र की बात करो
अश्क तह-ए-चश्म दबे रहने दो
मैं ये कहता था
कहीं दूर खनकती हुई क़िलक़ारी को
अपने एहसास की क्यारी में नुमू पाने दो
वो जो फ़र्दा के चमन में है निगार मुमकिन
इसे अल्फ़ाज़ की महकार में सो जा ने दो
मैं ये कहता था
मगर क्या मैं यही कहता था
- पुस्तक : Sitarah Saaz (पृष्ठ 101)
- रचनाकार : Akhtar Usman
- प्रकाशन : Ahbaab Publications (2013)
- संस्करण : 2013
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