मज़दूर
बार-ए-हस्ती से परेशान नज़र आता है
रंग-ए-दुनिया पे वो हैरान नज़र आता है
बज़्म-ए-दानिश में पशेमान नज़र आता है
यूरिश-ए-ग़म से वो हलकान नज़र आता है
शिद्दत-ए-कर्ब से बे-जान नज़र आता है
पैकर-ए-दर्द वो इंसान नज़र आता है
सुब्ह-दम खेत में खलियान में कोहसारों में
शाम तक रेत के उठते हुए तूफ़ानों में
शाह-राहों में कभी शहर के ऐवानों में
तंग गलियों में कभी गाँव के मैदानों में
शिद्दत-ए-कर्ब से बे-जान नज़र आता है
पैकर-ए-दर्द वो इंसान नज़र आता है
पा-ब-ज़ंजीर वो जकड़ा हुआ ख़र-कारों में
कोह-ओ-सहरा में कभी दश्त में वीरानों में
मेले ठेले में कभी आम गुज़रगाहों में
सब्ज़ा-ज़ारों में कभी उजड़े गुलिस्तानों में
शिद्दत-ए-कर्ब से बे-जान नज़र आता है
पैकर-ए-दर्द वो इंसान नज़र आता है
रेग-ज़ारों में सुरंगों में निहाँ-ख़ानों में
किश्त-ए-वीराँ में कभी गाँव के खलियानों में
रिज़्क़ की खोज में जंगल में बयाबानों में
सुब्ह ता-शाम मगन नित-नए अरमानों में
शिद्दत-ए-कर्ब से बे-जान नज़र आता है
पैकर-ए-दर्द वो इंसान नज़र आता है
शोरिश-ए-दर्द से दिन-रात सिसकता मज़दूर
जुस्तुजू-ए-रह-ए-मंज़िल में भटकता मज़दूर
ज़ेब-ओ-ज़ीनत की महाफ़िल से झिझकता मज़दूर
अपनी मेहनत के पसीने में महकता मज़दूर
शिद्दत-ए-कर्ब से बे-जान नज़र आता है
पैकर-ए-दर्द वो इंसान नज़र आता है
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