रात के फैले अंधेरे में कोई साया नहीं
झिलमिलाते हुए कमज़ोर सितारे ये कहे जाते हैं
चाँद आएगा तो साए भी चले आएँगे
रात के फैले अंधेरे में कोई साया नहीं होता है
रात इक बात है सदियों की कई सदियों की
या किसी पिछले जनम की होगी
रात के फैले अँधेरे हैं कोई साया न था
रात का फैला अंधेरा मुहताज
इक भिकारी था उसी पहली किरन का जो लरज़ते हुए आती है जगा देती है
सोए सायों को उठा देती है बेदारी में
ज़ीस्त के हिलते हुए झूमते आसार नज़र आते हैं
ज़ीस्त से पहले मगर बात कोई और ही थी
रात के फैले अँधेरे में कोई साया न था
चाँद के आने पे साए आए
उस के बिखरे हुए गेसू साए
लाज की मीठी झिजक भी साया
और भी साए थे हल्के गहरे
काली आँखों की घनेरी पलकें
अपने आग़ोश में सायों को लिए बैठी थीं
और उन सायों में महसूस हुआ करता था
दिल का ग़म दिल की ख़लिश दिल की तमन्ना हर शय
एक साया है लरज़ता साया
और मुझे देखने पर उस की घनेरी चुप-चाप
एक साया ही नज़र आती थी
ऐसा इक साया जो ख़ामोश रहा करता हो
और उसे देखते ही मैं भी तो इक साया ही बन जाता था
साया ख़ामोश रहा करता है
और इक लर्ज़िश-ए-बेताब के होने पे भी ख़ामोशी ही
राह में मेरी इनाँ-गीर हुआ करती थी
उस के बिखरे हुए गेसू साए
लाज की मीठी झिजक भी साया
और भी साए थे हल्के गहरे
काली आँखों की घनेरी पलकें
अपने आग़ोश में सायों को लिए बैठी थीं
और उन सायों में महसूस हुआ करता था
दिल का ग़म दिल की ख़लिश दिल की तमन्ना हर शय
एक साया है लरज़ता साया
और मुझे देखने पर उस की घनेरी चुप-चाप
एक साया ही नज़र आती थी
ऐसा इक साया जो ख़ामोश रहा करता हो
और उसे देखते ही मैं भी तो इक साया ही बन जाता था
साया ख़ामोश रहा करता है
और इक लर्ज़िश-ए-बेताब के होने पर भी ख़ामोशी ही
राह में मेरी इनाँ-गीर हुआ करती थी
सीधा जाता हुआ रस्ता भी तो इक साया था
उस पे आते हुए जाते हुए इंसान तमाम
धुँदले साए थे मगर साए थे
मैं भी जाता हुआ आता हुआ इक साया था
मैं भी इक साया था किस का साया
किस के क़दमों से लिपटते हुए चुप-चाप चला जाता था
कह तो दूँ दिल में ये ग़मनाक ख़याल आता है
साया ख़ामोश रहा करता है
रात के साए ही ख़ामोश रहा करते हैं
दिन के साए तो कहा करते हैं
बीती लज़्ज़त की कहानी से
और मिरी मस्ती भी अब दिन का ही इक साया है
जिस के एक किनारे को शुआ' सोज़ाँ
अपनी शिद्दत से जलाने पे मिटाने पे तुली बैठी है
काश आ जाए घटा छाए घटा और बन जाए
चढ़ते सूरज का ज़वाल
चढ़ता सूरज ये बता देता है
बढ़ते साए हैं किसी के ग़म्माज़
बहते बहते ये कहे जाते हैं
रात के जागे हुए सोए हुए उठे हैं
धूप खाते हुए लटके लटके
जब कोई पैरहन आवेज़ाँ
एक झोंके से लरज़ उठता है
हम-नवाई को लरज़ता हुआ साया भी कहे जाता है
बीती लज़्ज़त की कहानी सब से
बीती लज़्ज़त भी मिरे वास्ते इक साया है
किसी सूरज के तले आते हुए बादल का
सरसराते हुए झोंके की तरह आता हुआ जाता हुआ
बातें करने को वो इक पल भी नहीं रुकता था
दिन का साया था उसे रात की इक बात भी मा'लूम न थी
रात इक बात है सदियों की कई सदियों की
और अब दिन है मुझे साए नज़र आते हैं
बोलते साए नज़र आते हैं
जाने पहचाने हैं फिर भी नए मफ़्हूम समझाते हैं समझाते ही चले जाते हैं
फिर पलट आते हैं
जैसे मैं जाता था और जा के पलट आता था
इसी रस्ते पे जो इक साया था
रास्ता आज भी साया है मगर इक नया साया है
राह में एक मकान
वो भी साया है उदासी का घनेरा सुनसान
राह में आती हुई हर मूरत
एक साया है चुड़ैल
हूर का उस में कोई अक्स नज़र आता नहीं
देखते ही जिसे मैं काँप उठा करता हूँ
आँखों में ख़ून उतर आता है
सामने धुँद सी छा जाती है
दिल धड़कता ही चला जाता है
और मैं देखता हूँ
साए मिलते हुए घुलते हुए कुछ भूत से बन जाते हैं
हिनहिनाते हुए हँसते हैं पुकार उठते हैं
दिल में क्या ध्यान यही है अब भी
दिल में क्या ध्यान यही है अब भी
साया ख़ामोश रहा करता है
देख हम बोलते हैं बोलते साए हैं तमाम
हम से बच तू कहाँ जाएगा
और मैं काँप उठा करता हूँ
और वो बोलते हैं
काँप उठा है लरज़ता है ये बुज़दिल नाकाम
बात करता ही नहीं है कोई
अब भी शायद ये समझता है लरज़ते दिल में
साया ख़ामोश रहा करता है
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