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मिरे अज़ीज़ो, मिरे रफ़ीक़ो

अली सरदार जाफ़री

मिरे अज़ीज़ो, मिरे रफ़ीक़ो

अली सरदार जाफ़री

MORE BYअली सरदार जाफ़री

    रोचक तथ्य

    Sardar Jafari's wife Sultana Jafari wrote a letter to him saying that some people are afraid of your communism. In response, Sardar Jafari created this poem.

    मिरे अज़ीज़ो, मिरे रफ़ीक़ो

    मिरी कम्युनिज़म से हो ख़ाइफ़

    मिरी तमन्ना से डर रहे हो

    मगर मुझे कुछ गिला नहीं है

    तुम्हारी रूहों की सादगी से

    तुम्हारे दिल की सनम-गरी से

    मुझे ये महसूस हो रहा है

    कि जैसे बेगाना हवा भी तक

    तुम अपने अंदाज़-ए-दिलबरी से

    कि जैसे वाक़िफ़ नहीं अभी तक

    सितमगरों की सितमगरी से

    फ़रेब ने जिन के आदमी को

    हक़ीर बुज़दिल बना दिया है

    हक़ीक़तों के मुक़ाबले में

    फ़रार करना सिखा दया है

    तुम्हें ये जिस दिन पता चलेगा

    हयात रंग-ए-हिना नहीं है

    हयात हुस्न-ए-बुताँ नहीं है

    ये एक ख़ंजर-ब-कफ़ करिश्मा

    एक ज़हरीला जाम-ए-मय है

    हमारी पीरी हो या जवानी

    मलूल अफ़्सुर्दा ज़िंदगानी

    शिकस्ता-ए-नग़्मा शिकस्ता-ए-नै है

    तुम्हें ये जिस दिन पता चलेगा

    तअस्सुबात-ए-कुहन के पर्दे

    तुम्हारी आँखों में जल-बुझेंगे

    ये तुम ने कैसे समझ लिया है

    कि दिल मिरा इश्क़ से है ख़ाली

    मिरी नज़र हुस्न से है आरी

    क़रीब आओ तुम्हें बताऊँ

    मुझे मोहब्बत है आदमी से

    मुझे मोहब्बत है ज़िंदगी से

    मुझे मोहब्बत है मह-जबीनों

    से, गुल-रुख़ों से समन-ए-बरों से

    किताबों से, रोटियों से, फूलों से

    पत्थरों से, समुंदरों से

    मिरी निगह में बसे हुए हैं

    हज़ार अंदाज़-ए-दिल-रुबाई

    मैं अपने सीने को चाक कर के

    अगर तुम्हें अपना दिल दिखाऊँ

    तो तुम को हर ज़ख़्म के चमन में

    हज़ार सर्व-ए-रवाँ मिलेंगे

    उदास मग़्मूम वादियों में

    हज़ार-हा नग़्मा-ख़्वाँ मिलेंगे

    हज़ार आरिज़, हज़ार शमएँ

    हज़ार क़ामत, हज़ार ग़ज़लें

    सुबुक-ख़रामाँ ग़ज़ाल जैसे

    हज़ार अरमाँ हज़ार उमीदें

    फ़लक पे तारों के जाल जैसे

    मगर कोई तोड़े दे रहा है

    लरज़ती मिज़्गाँ के नश्तरों को

    दिलों के अंदर उतारता है

    कोई सियासत के ख़ंजरों को

    किसी के ज़हरीले तेज़ नाख़ुन

    उक़ाब के पंजा-हा-ए-ख़ूनीं

    की तरह आँखों पे रहे हैं

    गुलाब से तन मिसाल-ए-बिस्मिल

    ज़मीन पर तिलमिला रहे हैं

    जो प्यास पानी की मुंतज़िर थी

    वो सूलियों पर टंगी हुई है

    वो भूक रोटी जो माँगती थी

    सलीब-ए-ज़र पर चढ़ी हुई है

    ये ज़ुल्म कैसा, सितम ये क्या है

    मैं सोचता हूँ ये क्या जुनूँ है

    जहाँ में नान-ए-जवीं की क़ीमत

    किसी की इस्मत, किसी का ख़ूँ है

    तुम्हीं बताओ मिरे अज़ीज़ो

    मिरे रफ़ीक़ो, तुम्हीं बताओ

    ये ज़िंदगी पारा पारा क्यूँ है

    हमारी प्यारी हसीं ज़मीं पर

    ये क़त्ल-गह का नज़ारा क्यूँ है

    मुझे बताओ कि आज कैसे

    सियाह बारूद की लकीरें

    कटीले काजल, सजीले सुरमे

    के बाँकपन से उलझ गई हैं

    ख़िज़ाँ के काँटों की उँगलियाँ क्यूँ

    हर इक चमन से उलझ गई हैं

    मुझे बताओ लहू ने कैसे

    हिना के जादू को धो दिया है

    हयात के पैरहन को इंसाँ

    के आँसुओं ने भिगो दिया है

    बता सको तो मुझे बताओ

    कि साज़ नग़्मों से क्यूँ हैं रूठे

    बता सको तो मुझे बताओ

    कि तार क्यूँ पड़ गए हैं झूटे

    मिरे अज़ीज़ो, मरे रफ़ीक़ो

    मिरी कम्युनिज़म कुछ नहीं है

    ये अहद-ए-हाज़िर की आबरू है

    मिरी कम्युनिज़म कुछ नहीं है

    ये अहद-ए-हाज़िर की आबरू है

    मिरी कम्युनिज़म ज़िंदगी को

    हसीं बनाने की आरज़ू है

    ये एक मासूम जुस्तुजू है

    तुम्हारे दिल में भी शायद ऐसी

    कोई जवाँ-साल आरज़ू हो

    कोई उबलती हुई सुराही

    कोई महकता हुआ सुबू हो

    ज़रा ये समझो मिरे अज़ीज़ो

    मिरे रफ़ीक़ो ज़रा ये सोचो

    तुम्हारे क़ब्ज़े में क्या नहीं है

    तुम्हारी ठोकर से जाग उठेगी

    तुम्हारे क़दमों में जो ज़मीं है

    बस एक इतनी कमी है यारो

    कि ज़ौक़ बेगाना-ए-यक़ीं है

    तुम्हारी आँखों ही में है सब कुछ

    तुम्हारी आँखों में सब जहाँ है

    तुम्हारी पलकों के नीचे धरती

    तुम्हारी पलकों पर आसमाँ है

    तुम्हारे हाथों की जुम्बिशों में

    है जू-ए-रंग-ए-बहार देखो

    देखो इस बे-सुतून-ए-ग़म को

    तुम अपने तेशों की धार देखो

    तुम अपने तेशे उठा के लाओ

    मैं ले के अपनी कुदाल निकलूँ

    हज़ार-हा साल के मसाइब

    हज़ार-हा साल के मज़ालिम

    जो रूह दिल पर पहाड़ बन कर

    हज़ार-हा साल से धरे हैं

    हम अपने तेशों की ज़र्ब-ए-कारी

    से उन के सीनों को छेद डालें

    ये है सिर्फ़ एक शब की मेहनत

    जो अहद कर लें तो हम सहर तक

    हयात-ए-नौ के नए अजंता

    नए एलोरा तराश डालें

    स्रोत :
    • पुस्तक : Ek Khvab aur (पृष्ठ 64)

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