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ना-रसाई

MORE BYमोहम्मद ओवैस मालिक

    चौदहवीं रात के चाँद और ज़मीं के माबैन

    ना-रसाई का जो दुख है वो हमारा दुख है

    सुरमई हिज्र की ता-हद्द-ए-नज़र पहनाई

    अन-गिनत तारों के झुरमुट में छुपी तन्हाई

    चाँद के दुख का मुदावा नहीं ये यकताई

    रुख़-ए-महताब को छूने की लगन में बे-ताब

    कहकशाओं की उरूसा के मचलते अरमान

    सीना-ए-बहर पे बिफरी हुई पागल मौजें

    रात भर शिद्दत-ए-जज़्बात से यूँ उठती हैं

    जिस तरह पिछले पहर लम्स की हसरत जागे

    जैसे रग रग में सुलगती हुई तिश्ना ख़्वाहिश

    जिस्म के सारे मसामों में चराग़ाँ कर दे

    हाए इस कर्ब के आलम में कहाँ मुमकिन है

    क़ब्ल-अज़-रोज़-ए-जज़ा चाक-ए-जुदाई सिलना

    आसमाँ-ज़ाद का इस ख़ाक-परी से मिलना

    क़ुव्वत-ए-सिक़्ल की डोरों से बंधे ये अजराम

    दाएरों में यूँ मुक़य्यद हैं कि कुछ भी कर लें

    एक दूजे की पनाहों में नहीं जा सकते

    शायद उन नूर के पारों की तरह हैं हम भी

    कब से मोहतात ख़मोशी के मदारों में रवाँ

    इक जुनूँ-ख़ेज़ मोहब्बत का सफ़र करते हैं

    हिज्र में दिल यूँ सुलगते हैं कि जाँ जाती है

    वा'दा-ए-क़ुर्ब ख़ुदा जाने वफ़ा हो कि हो

    वस्ल का सोच के ही जान पे बन आती है

    टूट कर बिखरे जो आग़ाज़-ए-जहाँ में रेज़े

    साअ'त-ए-हश्र के आने पे ही यकजा होंगे

    मेहर-ओ-मह अर्ज़-ओ-समा रूह बदन भी या'नी

    आख़िरश एक इकाई में सिमट जाएँगे

    ना-रसाई के अज़ाबों में यूँ गुज़री है हयात

    जी में आता है कि अब कोई क़यामत उतरे

    तोड़ कर अपने मदारों को मुलाक़ातें हों

    मेहरबाँ शामें हों कुछ ख़ुशबू भरी रातें हों

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