नया मकान
चलो मकाँ की मुसीबत से भी नजात मिली
ये ख़्वाब-गह, ये किचन, ग़ुस्ल-ख़ाने और बैठक
मैं सोचता हूँ मुझे सोचने को बात मिली
हुई हैं सिर्फ़ मशक़्क़त की कोशिशें अन-थक
नज़र-रुबा दर-ओ-दीवार के बनाने में
ये क़ुमक़ुमे ये तमद्दुन की इख़तिरा-ए-जदीद
बढ़ी जलालत-ए-इदराक तीरगी न मिटी
ये सीढ़ियाँ हैं निगाहों के पेच की मज़हर
हयात की कोई पेचीदगी न दूर हुई
मगर मैं महव हूँ इदबार के मिटाने में
ये सीढ़ियाँ हैं जो इन पर से गिर पड़े कोई
बरी घड़ी न ख़ुदा लाए जाने कब आ जाए
ये चिकना फ़र्श इसे देखता रहे कोई
जो कल को पाँव तुम्हारा कहीं फिसल जाए
ख़ुदा करम करे मेरा तो दम निकल जाए
मैं सोचता हूँ मुझे सोच का जुनूँ जो हुआ
ये मेरे ज़ेहन का माहौल पुर-फ़ुसूँ जो हुआ
ये मेरा ज़ेहन मुझे ले चला है दूर कहीं
वहाँ जहाँ कभी पहले भी था मकाँ अपना
फ़लक के साए में हम थे कभी पनाह-गुज़ीं
ये फ़र्श-ए-ख़ाक था क़ालीन-ए-ज़र-फ़शाँ अपना
ये महर ओ माह ये तारे थे अपने घर के दिए
गुल-ओ-गया से है लबरेज़ पुर-बहार ज़मीं
जिलौ में हुस्न लिए दावत-ए-नज़र के लिए
कभी हमारे लिए थी नशिस्त-गाह-ए-हसीं
ये ज़ुल्फ़ पेच से बेगाना मौज-ए-सहबा थी
कि जिस का बरसों मिरी उँगलियाँ रहीं शाना
ये तेरी हमदमी इक कैफ़ियत थी नश्शा भी
जहाँ भी चाहना फ़ौरन वहीं चले जाना
वो सुब्ह साहिल-ए-दरिया वो शाम ज़ेर-ए-चिनार
गुज़र गई वो मसर्रत की सुब्ह-ओ-शाम अपनी
हमारे दोश पे जब था न जब्र-ओ-क़द्र का बार
चलो चलो ये हिकायत है तल्ख़-काम अपनी
उठो उठो दर-ओ-दीवार को सजाना है
मकाँ को गहनों-लदी इक दुल्हन बनाना है
- पुस्तक : aazaadii ke baad delhi men urdu nazm (पृष्ठ 319)
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