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नज़्म इत्तिहाद

MORE BYमिर्ज़ा अल्ताफ़ हुसैन आलिम लखनवी

    फ़स्ल-ए-बहार आई मगर हम हैं और ग़म

    हर सम्त से हैं घेरे हुए सदमा-ओ-अलम

    आई उफ़ ज़बाँ पे सितम पर हुए सितम

    क्या इम्तिहाँ के वास्ते ठहरे हैं सिर्फ़ हम

    जब अपनी क़ुव्वतों पे भरोसा नहीं रहा

    बेहतर है फिर जहाँ से उठा ले हमें ख़ुदा

    इस उम्र-ए-चंद-रोज़ा में की लाख जुस्तुजू

    छानी है हम ने ख़ाक ज़माने में कू-ब-कू

    शिकवा अदू का क्या है जब अहबाब हैं अदू

    जीने की इक सेकेंड नहीं अब तो आरज़ू

    हम ने समझ लिया कि जहाँ से गुज़र गए

    जब दिल ही मर गया तो सब अरमान मर गए

    हम पर गिराएँ चर्ख़ ने इस हद पे बिजलियाँ

    दम-भर में जल के ख़ाक हुईं सारी उस्तुख़्वाँ

    चलती रहीं हवा-ए-मुख़ालिफ़ की आँधियाँ

    आता नहीं समझ में कि जा कर छुपें कहाँ

    ज़ेर-ए-ज़मीं भी चैन की उम्मीद अब नहीं

    फिर क्या है ये बता दे कोई गर ग़ज़ब नहीं

    मक्र-ओ-फ़रेब से जो करें ज़िंदगी बसर

    सौ जाँ हज़ार दिल से हो क़ुर्बान हर बशर

    दिन रात हम हों और हों अहबाब-ए-ख़ीरा-सर

    ईमान-दारीयों में कटी ज़िंदगी अगर

    हर एक की निगाह में बस ख़ार हो गए

    बे-सोंचे-समझे मुस्तहिक़-ए-दार हो गए

    दा'वा तो ये है हम भी मुसलमान हैं ज़रूर

    कलमा जो पोछिए तो नहीं याद है हुज़ूर

    क्या ग़म अगर शिकस्ता अज़ीज़ों के हैं क़ुबूर

    तेरा ये इस पे हद से ज़ियादा है कुछ ग़ुरूर

    मेलों के वास्ते जो तलब हो तो ख़ूब दें

    क़ौमी जो कोई काम हो तो नाम भी लें

    पूछा अगर इबादत-ए-ख़ालिक़ है कोई चीज़

    फ़रमाया दिल में ये तो निहायत है बद-तमीज़

    अय्याशियाँ जो कीजिए तो आप हैं अज़ीज़

    क़ौम काहिली है तिरी घर की अब कनीज़

    अच्छी बुरी का जब तो नहीं इम्तियाज़ है

    बे-माएगी पर अपनी फ़क़त तुझ को नाज़ है

    हुश्यार कोई लाख करे तो है बे-ख़बर

    इस दर्जा बे-हया कि नहीं दिल पे कुछ असर

    नाज़ाँ हैं सिर्फ़ बाप के दादा के नाम पर

    क़र्ज़े में हो रही है मगर ज़िंदगी बसर

    देखो तो ग़ैर हँसते हैं होश्यार हो ज़रा

    लिल्लाह अब तो ख़्वाब से बेदार हो ज़रा

    फूलो-फलो इलाही रहो शाद सर-ब-सर

    हो नख़्ल-ए-इत्तिहाद हमेशा ये बारवर

    वो दिन ख़ुदा दिखाए कि ले आए ये समर

    आना है तुम को मंज़िल-ए-मक़्सूद तक अगर

    डाली है इत्तिहाद की तुम ने जो दाग़-बेल

    हिम्मत हारो जान के बच्चों का एक खेल

    देखो तो और क़ौमों में क्या इत्तिहाद है

    दौलत से और इल्म से हर एक शाद है

    तुम में भी आज ऐसा कोई ख़ुश-निहाद है

    महमूद का ये क़ौल हमें अब तो याद है

    दो दिन रहे जो के जहाँ में तो खल गए

    आख़िर को मिस्ल-ए-ख़ार-ए-चमन से निकल गए

    सकिनान मौज़ा-ए-जुगवूर अस्सलाम

    दुनिया है आज तुम को हर इक बात का पयाम

    अब तो निकालो अपनी दिलों से ख़याल-ए-ख़ाम

    अच्छा नहीं जो ग़ैर के बन जाओ तुम ग़ुलाम

    अच्छी नसीहतों पे अमल फिर ज़रूर है

    कोई ये कहे कि सरासर क़ुसूर है

    अपने उमूर में करो ग़ैर को शरीक

    शर को ढूँढो और करो ख़ैर को शरीक

    अच्छे नहीं सफ़र जो करें सैर को शरीक

    का'बे के ज़िक्र में करो दैर को शरीक

    तुम ख़ुद रहे हो साहिब-ए-इक़बाल दहर में

    क्यूँ ढूँडते हो ज़ाइक़ा-ए-शहद ज़हर में

    अख़्लाक़ का चराग़ बुझाना चाहिए

    ज़ुल्मत-कदा में ग़ैर के जाना चाहिए

    सच्ची नसीहतों को भुलाना चाहिए

    तुम को किसी फ़रेब में आना चाहिए

    अल्लाह के भरोसा पे हर काम तुम करो

    दुश्मन भी जिस को मान लें वो नाम तुम करो

    स्रोत :
    • पुस्तक : Intekhab-e-Kuliyat Aalim Lucknowi (पृष्ठ 363)
    • रचनाकार : Mirza Mohammad Yousuf
    • प्रकाशन : M. R. Publication (2010)
    • संस्करण : 2010

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