नज़्म
समाँ बदला
हवा बदली
सियाही रात की बदली
फ़ज़ा में तैरती और चीख़ती बू-ए-लहू बदली
जो गर्दिश में हैं तारे
क्या ज़रा भी इन की रौ बदली
नहीं बदली
तमाज़त दिन की बदली
या उदासी शाम की बदली
झुलसती धूप बदली न सुलगती दोपहर बदली
सबा की ताज़गी बदली
न ख़ुशबू सहर की बदली
दुआ बदली
अज़ाँ बदली
ग़रीबों की फ़ुग़ाँ बदली
अमीरों की अना बदली
नहीं बदली
न ऊपर आसमाँ बदला
न नीचे ये ज़मीं बदली
न ज़ालिम की हँसी बदली
न मज़लूमों की बेकस बे-अमाँ बे-आसरा सी इल्तिजा बदली
अगर बदला तो इक हिंदसा
नहीं बदली तो तक़दीरें
नहीं बदले तो अपने ख़्वाब
और इन ख़्वाबों की ता'बीरें
और इन से मुंसलिक अपने दुखों की दास्ताँ
अपने ग़मों की दास्ताँ
बिल्कुल नहीं बदली
तो क्या बदला
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