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क़ुर्बानी के बकरे

सय्यद मोहम्मद जाफ़री

क़ुर्बानी के बकरे

सय्यद मोहम्मद जाफ़री

MORE BYसय्यद मोहम्मद जाफ़री

    फिर गया है मुल्क में क़ुर्बानियों का माल

    की इख़्तियार क़ीमतों ने राकेटों की चाल

    क़ामत में बकरा ऊँट की क़ीमत का हम-ख़याल

    दिल बैठता है उठते ही क़ुर्बानी का सवाल

    क़ीमत ने आदमी ही को बकरा बना दिया

    बकरे को मिस्ल-ए-नाक़ा-ए-लैला बना दिया

    बकरे के पीछे पीछे हैं मजनूँ का भर के स्वाँग

    गर हो सके ख़रीदिए बकरे की एक टाँग

    क़ीमत जो टाँग की है लगा देगी फिर छलांग

    ''मुझ से मिरे गुनह का हिसाब ख़ुदा मांग''

    ''टेढ़ा लगा है क़त क़लम-ए-सरनविश्त को''

    महँगाई में चला है ये बकरा बहिश्त को

    देहात से जो शहर में बकरों को लाए हैं

    मालूम हो रहा है वो जन्नत से आए हैं

    क़ीमत ने आसमान के तारे दिखाए हैं

    बकरा नहीं ख़रीदा गुनह बख़शवाए हैं

    क़ुर्बानी ऐसे हाल में अम्र-ए-मुहाल है

    बकरा ''तमाम हल्क़ा-ए-दाम-ए-ख़याल है''

    क़ुर्बानी हो भी जाए मगर खिंच रही है खाल

    गोश्त खाने वालो ज़रा ख़ुद करो ख़याल

    बकरे के साथ होता है गाहक का इंतिक़ाल

    गर क़ीमतें यही हैं तो जीने का क्या सवाल

    हैं गल्ला-बान लोगों के पीछे पड़े हुए

    और बकरा ले के हम भी हैं मुर्ग़े बने हुए

    चौराहों पर खड़े हुए बकरों के हैं जो ग़ोल

    तू उन के मुँह को खोल के दाँतों को मत टटोल

    क़ीमत में वर्ना आएगा फ़ौरन ही इतना झोल

    सोने का जैसे बकरा हो ऐसा पड़ेगा मोल

    ख़ुद ही कहेगा बकरा कि तुझ में अगर है अक़्ल

    ''अपनी गली में मुझ को कर दफ़्न ब'अद-ए-क़त्ल''

    बकरे तमाम राह में हुंकारते चले

    बंगलों के बेल-बूटों पे मुँह मारते चले

    जिस घर में घुस गए वहीं इफ़तारते चले

    और जब हिले जगह से तो सिसकारते चले

    घर वाले कह रहे हैं कि बाहर निकाल दो

    बकरे मुसिर हैं इस पे कि डेरा ही डाल दो

    बकरा जो सींग वाला भी है और फ़सादी है

    उस ने सियासी-जलसों में गड़बड़ मचा दी है

    चलते हुए जुलूस में टक्कर लगा दी है

    और वोटरों में पार्टी-बाज़ी करा दी है

    बकरे हैं लीडरों की तरह जिन पे झूल है

    हुनकारते हैं चुप भी कराना फ़ुज़ूल है

    बकरे जो फिर रहे हैं सड़क पर इधर उधर

    जलसों में और जुलूसों में करते हैं शब बसर

    बकरे की पूरी नस्ल से बेज़ार हैं बशर

    जम्हूरियत के बकरों की ले क्या कोई ख़बर

    डर है कि बकरा भूक की हड़ताल कर जाए

    मनहूस सब के वास्ते ये साल कर जाए

    क़ुर्बानियों का दौर है बकरों की ख़ैर हो

    है और बात हालत-ए-इंसान ग़ैर हो

    क़र्ज़े में उस का जकड़ा हुआ हाथ पैर हो

    लेकिन नसीब बकरे को जन्नत की सैर हो

    बकरे के सर पे आएगी शामत ही क्यूँ हो

    ''इस में हमारे सर पे क़यामत ही क्यूँ हो''

    बकरों की इतनी गर्मी-ए-बाज़ार देख कर

    और क़ीमतों की तेज़ी-ए-रफ़्तार देख कर

    बकरा ख़रीदा सस्ता सा बीमार देख कर

    जो मर गया छुरी पे मिरी धार देख कर

    मेरे नसीब में थी क़ुर्बानी की ख़ुशी

    इस मस्लहत से कर ली है बकरे ने ख़ुद-कुशी

    स्रोत :
    • पुस्तक : Teer-e-Neem Kash (पृष्ठ 20)
    • रचनाकार : sayed Zameer jafary
    • प्रकाशन : dost publications (2007)
    • संस्करण : 2007

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