उसे कहना
कभी मिलने चला आए
हमारे पाँव में जो रास्ता था
रास्ते में पेड़ थे
पेड़ों पे जितनी ताएरों की टोलियाँ
हम से मिला करती थीं
अब वो उड़ते उड़ते थक गई हैं
वो घनी शाख़ें जो हम पर साया करती थीं
वो सब मुरझा गई हैं
तुम उसे कहना
कभी मिलने चला आए
लबों पर लफ़्ज़ हैं
लफ़्ज़ों में कोई दास्ताँ क़िस्सा कहानी
जो उसे अक्सर सुनाते थे
किसे जा कर सुनाएँगे
बताएँगे
कि हम मेहराब-ए-अबरू में सितारे टाँकने वाले
दर-ए-लब बोसा-ए-इज़हार की दस्तक से अक्सर खोलने वाले
कभी बिखरी हुई ज़ुल्फ़ों में हम
महताब के गजरे बना कर बाँधने वाले
चराग़ और आइने के दरमियाँ
कब से सर-ए-साहिल खड़े मौजों को तकते हैं
उसे कहना
उसे हम याद करते हैं
उसे कहना
हम आ कर ख़ुद उसे मिलते
मगर मक़्तल बदलते मौसमों के ख़ून में रंगीन है
और हम
क़तार अंदर क़तार ऐसे बहुत से मौसमों के दरमियाँ
तन्हा खड़े हैं
जाने कब अपना बुलावा हो
कि हम में आज भी
इक उम्र की वारफ़्तगी और वहशतों का रक़्स जारी है
वो बाज़ी जो बिसात-ए-जाँ पे खेली थी
अभी हम ने न जीती है न हारी है
उसे कहना कभी मिलने चला आए
कि अब की बार शायद
अपनी बारी है
- पुस्तक : جنہیں راستے میں خبر ہوئی (पृष्ठ 251)
- रचनाकार : سلیم کوثر
- प्रकाशन : فضلی بکس ٹیمپل روڈ،اردو بازار، کراچی
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