Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

शहर-ए-नवा

MORE BYशफ़ीक़ फातिमा शेरा

    उस गिर्द-ओ-नवाह में महकी थी

    वो नग़्मा ब-लब लाले की कली

    पत्ती पर लिपटी पत्ती सरकाती

    आहिस्ता ख़िराम सुनहरी धूपों में

    इक पूरी रुत का ख़म उस के

    अमृत से भरा

    इक पूरी रुत डंडी ढलकाने

    पंखुड़ियाँ बिखराने को दरकार हुई

    सब चमन चमन गुल हौज़ लबालब साए घने

    झोंकों की सूरत की रवाँ-दवाँ

    उफ़्तादा ब-ज़ाहिर सब राहें

    रहती हैं पैहम सरगर्दां

    सब अगले पिछले युग

    सब बस्ते उजड़ते गाँव नगर

    शर्नाथी निर्वासी

    पैहम दोहराते हुए

    वो बीती बातें

    जिन का कोई अंत नहीं

    पीढ़ी पीढ़ी कालख पीती

    इन राहों पर

    चलते चलते तलवे पथरा जाते हैं

    पथराहट

    धीरे धीरे हस्ती का ज़ाहिर बातिन सब लेती है निगल

    आँखें साकित

    आँसू जिम जाते हैं

    जब कोई हो

    जब साया शाख़-ए-गुल अफ़ई बन कर रेंगे

    हर आहट के नादीदा हाथ में चाक़ू का फल खुला हुआ

    रह रह कर चमक उठे

    तब कौन है ये

    शाने पर नर्मी से रखा जाने वाला

    इक हाथ कहीं ये

    ख़ुसरव का नग़्मा तो नहीं

    इक पल संजोग ज़मानों का

    जानों का और अरमानों का

    झरना बन कर पत्थर से फूट पड़ा

    ये अपनी आँखें

    कितने दूर-दराज़ ज़मानों में

    खुल सकती हैं

    पानी इस छाँव का ठंडा यख़

    पानी में बसी कूज़ा की सुगंध

    मरहम ज़ख़्म-ए-जिगर का

    और कारी इतना

    ये अपनी आँखें कितने दूर-दराज़

    ज़मानों में खुल सकती हैं

    सब कुछ वैसा ही जैसे सच-मुच का

    ज़ी-नफ़स कुशादा गिर्द-ओ-पेश

    ता'मीर उजली उजली

    जादों में

    हर आन उजागर ओझल अर्ज़-ओ-समा

    इस गिर्द-ओ-नवाह में उतरा था

    इक शहर-ए-नवा

    वो एक समय का दीप समय की आँधी में

    जलता था यहाँ

    इस में जितना भी शामिल था

    महलों का फ़सीलों का हिस्सा

    नाबूद हुआ

    नाबूद हुआ जाता है पैहम

    क़त्ल-ए-आम का ख़त

    लश्कर गाहों का रक़्बा

    क़रनों का असासा

    पूरब का आहंग ये जाना पहचाना

    इक नर्म तमाज़त बसंत-रुत में

    रची हुई

    जब जब मैं लाली कहती हूँ

    इक सूरज ज़ेर-ए-ख़त्त-ए-उफ़ुक़

    महजूब हुआ जाता है जैसे इक आलम

    हो उस की तरफ़ अंगुश्त-नुमा

    थम जाते हैं पल भर को नवा-गर सफ़र-नसीब

    ये किस सागर की पर्वर्दा बदली होगी

    कितनी जाँ लेवा मसाफ़तें तय कर के उसे

    इस वादी के दामन में मिला

    हंगाम बरसने का

    स्रोत :
    • पुस्तक : Silsila-e-makalmat (पृष्ठ 15)
    • रचनाकार : Shafique Fatma Shora
    • प्रकाशन : Educational Publishing House (2006)
    • संस्करण : 2006

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

    Get Tickets
    बोलिए