सूरज
हर रोज़ की तरह दिन
आज भी
सूरज की गवाही ले कर
आख़िर अँधेरी गलियों में घुस आया
और हम
अपने अपने घर के न्यायधीश
सूरज की गवाही के आदी हो चुके हैं
सच मान लेते हैं और यूँ
कहीं न कहीं अपने ही बिखराओ में
साझी हो चुके हैं
हमें उस सूरज की गवाही नहीं चाहिए
जो किसी पेशेवर गवाह की तरह
दिन की प्रतीत कराने
पीले चेहरों पर
कच्चे घरों के आँगन में
करुणा का बीज बन उगना चाहता है
नहीं चाहिए हमें
उस सूरज की गवाही जो हर बार
नया स्वाँग भर
सुब्ह से शाम तक टोकरे ढोने वाले
जीवंत चेहरों का मुखौटा लगा कर
ओढ़ी हुई नागरिकता में नहा कर
वो सूरज अब ठंडा पड़ चुका है
और अब
हमारे ही अंतर से सुलगना चाहता है
हम सूरज को
अपने लाल तवे के ऊपर
पकता हुआ देखना चाहते हैं
सूरज नहीं है किसी की बपौती
हर बस्ती की उम्मीद है वो
गोया हर हाथ की रोटी
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