ताबूत नगर
मुझे पता भी न चला
और मैं ताबूत-नगर आ गया
ये इतना मुबहम भी न था
ताबूत-नगर
जिस की गलियों में
इंसान अपनी परछाइयों से कट जाते हैं
ताबूत नगर के चार चोब दरवाज़े और दरीचे
इंसानों के मुंतज़िर हैं
जो अपने घरों में दफ़्न हैं
जब यख़-बस्ता हवाएँ टकराती हैं उन घरों से
तो ये लोग अपनी बदबू-दार साँस
किसी ग़ुबारे की तरह अपने अंदर भर लेते हैं
जब लोग अपनी ख़ामोशी से उक्ता जाते हैं
शोर की तलाश में
दीवारों को तोड़ कर
बाहर निकल आते हैं
अपने अज़ीम मक़्सद की आड़ में
एक दूसरे को दार से लटकाते हैं
मुझे पता भी न चला
और मैं ताबूत-नगर आ गया
पिछली रात
क्यूँकि हर इंसान की एक पिछली रात होती है
जब बिल्ले रोते हैं
जब ख़ाना-ज़ाद मकड़ी जाला बुनती है
जिस के मरकज़ में चमक उठता है चाँद
जब इंसानों के अंदर के झाड़ झंकार
उन के कानों नथनों से
उन के दहन और मक़अद से
बाहर निकल आते हैं
जब ज़हरीले कुकुरमुत्ते उगते हैं
उन की शिरयानों से
जिन्हें अपनी ज़रूरत के मुताबिक़
वो अपने चोगाथ पर सजाते हैं
ख़ूबसूरत रंगों से रंगते हैं
ख़ूबसूरत लफ़्ज़ों से ढक कर
दुनिया के सामने लाते हैं
पिछली रात
किसी ने कहा था
अब इस रात का मातम बे-कार है
वक़्त आ चुका है कि लोग
अपने ताबूत से उठाए जाएँ
धो धुला कर अच्छे कपड़े पहनाए जाएँ
नए सिरे से दफ़नाए जाएँ
इस की ज़रूरत आ चुकी है
कि तारीख़ से लोगों के ना-जाएज़ क़ब्ज़े हटाए जाएँ
तो मैं ने नफ़ी में सर हिलाया
ये हमारे ख़ून में है
ये जरसूमे कभी नहीं मरते
इन्हें बार बार जी उठने की लत है
इन्हें बार बार दफ़नाना ज़रूरी हो जाता है
और मैं मेज़ से उठने वाला आख़िरी शख़्स न था
जिसे अपने ताबूत के अंदर जाना था
न ये आख़िरी बार था कि मुझे ताबूत से बाहर आना था
न ये आख़िरी बार था कि नए सिरे से
एक नए मातम के साथ एक नए कत्बे के साथ
मुझे एक नए ताबूत में अपना घर बसाना था
और मुझे पता भी न चला
मैं ताबूत-नगर आ गया
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