ग़ुस्ल-ख़ाने में वो कहती हैं हमें चीनी की ईंटें ही पसंद आती हैं
चीनी की ईंटों पे वो कहती हैं छींटा जो पड़े तो पल में
एक इक बूँद बहुत जल्द फिसल जाती है
कोई पूछे कि भला बूँदों के यूँ जल्द फिसल जाने में
क्या फ़ाएदा है
जब ज़रूरत हुई जी चाहा तो चुपके से गए और नहा कर लौटे
धुल-धुला कर यूँ चले आए कि जिस तरह किसी झील के पानी पे कोई मुर्ग़ाबी
एक दम डुबकी लगाती है लगाते ही उभर आती है
और फिर तैरती जाती है ज़रा रुकती नहीं
वो ये कहती हैं मगर चीनी की ईंटों का अगर फ़र्श हो दीवारें हों
दिल ये कहता है कि हर चीज़ का निखरा हुआ रंग
आँखों को कितना भला लगता है
जैसे बरसात में थम जाते हैं बादल जो बरस कर तो हर इक फुलवारी
यूँ नज़र आती है
जैसे जाना हो उसे अपने कसी चाहने वाले से कहीं मिलने को जाना हो मगर
अभी कुछ सोच में हो
कोई पूछे कि भला चीनी की ईंटों को किसी सोच से क्या निस्बत है
चीनी की ईंटें तो बे-जान हैं फुलवारी में हर फूल कली हर पत्ता
ज़ीस्त के नूर से लहराता है
फूल मुरझाए कली खिलती है
और हर पत्ता नए फूल के गुन गाता है
चीनी की ईंटें कोई गीत नहीं गा सकतीं
चीनी की ईंटें तो ख़ामोश रहा करती हैं
ऐसी ख़ामोशी से उक्ता के नहाने वाला
कुछ इस अंदाज़ से इक तान लगाता है कि लुक़्मान ही याद आता है
जब मैं ये कहता हूँ वो पूछती हैं
कोई पूछे तो भला तान को लुक़्मान से किया निस्बत है
और मैं कहता हूँ लुक़्मान को लुक़्मान को या तान को रहने दो चलो
और कोई बात करें
और यूँ लेटे ही रहते हैं किसी के दिल में
ध्यान आता ही नहीं
ग़ुस्ल-ख़ाने में क़दम रक्खें नहा कर सोएँ
लेटे लेटे यूँही नींद आती है सो जाते हैं
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