तो ऐसा क्यूँ नहीं कहते
कि ये सपने ही मेरे कर्ब के ज़ामिन हैं उन के ही सबब से मैं
झुलसते रेग-ज़ारों में बरहना-पा भटकता हूँ
इन्ही परछाइयों को जिस्म देने की तमन्ना मुझ से आसाइश का हर लम्हा
मज़े की नींद आ'साबी सुकूँ सब छीन लेती है
यही वो ज़हर है जिस ने
मिरे ख़ूँ के नमक को नीम के रस में बदल डाला
तो ऐसा क्यूँ नहीं कहते
कि मैं सपनों के इस अर्ज़ंग को
सूरज की जलती भट्टियों में फेंक दूँ सब कुछ जला डालूँ
किसी लंगर-शिकस्ता नाव की मानिंद धारे पर रवाँ हो जाऊँ
हर इक मौज के हमराह डूबूँ और उभर आऊँ
तो ऐसा क्यूँ न कर पाए
वो जो कुछ मेरा हिस्सा था
मिरा विर्सा था
मुझ से छीन लेते और मुझे जंगल के बेहिस पेड़ की मानिंद उगा देते
जो हर मौसम के हमराह अपना पैराहन बदलता है
हवा के झोंके देते हैं इजाज़त जिस तरफ़ बढ़ने की बढ़ता है
ज़मीं की नरमियों को देख कर अपनी जड़ें पैवस्त करता है
मगर तुम ये न कर पाए
मिरा विर्सा न मुझ से छीन पाए और वो पहला शख़्स जिस ने सब से पहला ख़्वाब देखा था
अभी तक मुझ में ज़िंदा है
तो ऐसा क्यूँ नहीं करते
उन्ही सपनों उन्ही परछाइयों को जिस्म दे डालो
जिन्हें इक जिस्म देने की तमन्ना मुझ से आसाइश का हर लम्हा
मज़े की नींद आ'साबी सुकूँ सब छीन लेती है
- पुस्तक : auraq salnama magazines (पृष्ठ e-270 p-258)
- रचनाकार : Wazir Agha,Arif Abdul Mateen
- प्रकाशन : Daftar Mahnama Auraq Lahore (1967)
- संस्करण : 1967
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