वादी-ए-नील
जमाल-ए-मर्ग-आफ़रीं! ये शब मेरी ज़िंदगी है
निचोड़ दे इस के चंद लम्हों की इशरतों में
वो मय वो नश्शा कि साग़र-ए-माह-ए-विसाल में है
वो मय कि तेरे जमाल में है
विसाल में है
विसाल! तेरा विसाल वो शोला-ए-अजल है
कि जिस में जल कर कई पतिंगे अबद की मंज़िल को पा चुके हैं
अबद की मंज़िल!
सेहर की पहली किरन वो नागन
कि मेरे सीने से आख़िरी साँस बन के पलटेगी, आ मिरी जाँ!
जमाल-ए-मर्ग-आफ़रीं! ये शब मेरी ज़िंदगी है
मेरे लबों ने वो लब भी चूमे हैं जिन में मर्ग-ए-गिराँ नहीं थी
वो फूल से लब कि जिन की तहदार पत्तियों में
तमाज़त-ए-बादा-ए-वफ़ा थी
मिरे जवाँ-साल बाज़ुओं ने
धड़कते मरमर की उन चटानों से रस निचोड़ा है ज़िंदगी का
जिन्हें गुमाँ था कि मेरे पहलू में दम निकलना ही ज़िंदगी है
मिरे ही सीने पे जागती हैं अभी वो रातें
कि जिन में उभरे हैं आफ़्ताब-ए-जमाल मेरी मसर्रतों के
वो आफ़्ताब-ए-जमाल जो कल सहर की पहली किरन के डसने से
मेरे हम-राह जल बुझेंगे
तिरे तबस्सुम की लौ उभरती ही जा रही है
तुझे नज़र आ रही है शायद वो ज़ीस्त जो लाश बन के तड़पेगी
कल सहर को
मगर मैं कुछ और देखता हूँ
अगर मैं ये शब गुज़ार देता गुर्सिना शेरों के जंगलों में
जहाँ हर इक लहज़ा मौत मुँह फाड़ कर झपटती है
बेबसी पर
अगर मैं ये शब गुज़ार देता किसी समुंदर के सर्द सीने की धोंकनी पर
जहाँ हर एक लहज़ा मौत मुँह फाड़ कर झपटती है
बेबसी पर
अगर मैं ये शब गुज़ार देता किसी ग़म-ए-मर्ग-आफ़रीं में
कि जिस के चंगुल में लहज़ा लहज़ा लहू टपकता है आरज़ू का
अजब न था आज शब अगर मेरा कोई दुश्मन
मिरे बदन से ये नोक-ए-ख़ंजर निकाल देता वो ख़ूँ जो अब मेरी ज़िंदगी है
जो अब तिरे पैकर-ए-मसर्रत की वादियों में
मिरी हक़ीक़त का राज़-दाँ है
क़ुबूल है मुझ को आज की शब सहर है जिस की अबद की मंज़िल
जमाल-ए-मर्ग आफ़रीं ये शब मेरी ज़िंदगी है
मिरा मुक़द्दर कि आज की शब है मुझ को हासिल ये तेरा पैकर
मिरा मुक़द्दर कि मैं ने ख़ुद मौत को पुकारा है तेरी ख़ातिर
मिरा मुक़द्दर कि मैं हूँ वो मौत का मुसाफ़िर
जो अपनी मंज़िल पे आ गया है तिरे शबिस्ताँ में ख़ुद ठहर कर
तिरे लबों से हयात पा कर
तिरे जमाल-ए-हयात-परवर से लौ लगा कर
तिरी निगाहों की गहरी झीलों में तैर कर, मिशअलें जला कर
गुदाज़ पैकर की रेशमी चिलमनें उठा कर
धड़कते दिल में तराने बो कर ज़माने ला कर
अज़ल अबद को समेट कर, बे-कराँ बना कर
तिरे बदन की लताफ़तों में मसर्रत-ए-ज़िंदगी मिला कर
तिरे लहू में शरारे भर कर हरारत-ए-जावेदाँ बसा कर
तिरे ख़ुमिस्तान-ए-दिलबरी को जहाँ में इक दास्ताँ बना कर
तुझे अजल से क़रीब ला कर
हक़ीक़त-ए-ज़िंदगी दिखा कर
कि मैं हूँ वो मौत का मुसाफ़िर
तिरे शबिस्ताँ के चोर दरवाज़े से गुज़र कर
जो अपनी मंज़िल पे आ गया है
वो लोग जो रो रहे हैं मुझ को
कि मैं ने ख़ुद मौत को पुकारा है तेरी ख़ातिर
वो लोग क्या जानें ज़िंदगी को
उन्हें ख़बर क्या कि मौत हर लहज़ा उन की हस्ती को खा रही है
उन्हें ख़बर क्या कि ज़िंदगी क्या है मैं समझता हूँ ज़िंदगी को
कि आज की शब ये ज़िंदगी मेरी ज़िंदगी है
ये ज़िंदगी है मिरी जिसे मैं ने आज की शब
तिरे मसर्रत-कदे में ला कर
अबद से हम-दोश कर दिया है
अजल को ख़ामोश कर दिया है
थिरक रहा है तिरा बदन लज़्ज़त-ए-तरब से
चमक रही हैं तिरी निगाहें ख़ुमार-ए-शब से
उचक उचक कर सहर मुझे देखने लगी है
सहर का था इंतिज़ार कब से
- पुस्तक : Nai Nazm ka safar (पृष्ठ 94)
- रचनाकार : Khalilur Rahman Azmi
- प्रकाशन : NCPUL, New Delhi (2011)
- संस्करण : 2011
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