वतन से ख़िताब
मुझे ऐ वतन तू ज़रा बता किधर अब हैं वो तिरी सन’अतें
जो हर एक मुल्क से लाई थीं तिरे पास खींच के दौलतें
तुझे मुफ़लिसी न पसंद थी तिरी राह-ए-स’ई न बंद थी
तिरी हिम्मत ऐसी बुलंद थी कि निसार उस पे थीं हिम्मतें
तिरी कोशिशों से लगी थी लौ उसी लौ से फैल रही थी ज़ौ
हुए सुस्त मुल्क भी गर्म-रौ तिरी देख देख के मेहनतें
तिरी सन'अतों में वो रंग था कि फ़िदा हर अहल-ए-फ़रंग था
जिन्हें देख बाग़ भी दंग था वो हुई थीं उन पे रियाज़तें
गया जब बदल वो तिरा चलन न रहा वो 'इल्म तिरा न फ़न
गईं तुझ से छिन वो अब ऐ वतन जो ख़ुदा ने दी थीं लियाक़तें
हुई मुंतशिर वो तिरी सभा जो हर इक हुनर से थी आश्ना
जो हर एक 'इल्म पे थी फ़िदा हुई ख़त्म जिस पे फ़ज़ीलतें
न रहा वो 'इल्म का अब समाँ न वो सन'अतों का रहा निशाँ
न रही वो दौलत-ए-शाएगाँ हुईं दूर अब वो स’आदतें
अगर अब भी गर्म-ए-‘इनाँ हो तू रह-ए-सरवरी पे रवाँ हो तू
तो फिर इफ़्तिख़ार-ए-जहाँ हो तू तुझे फिर मिलें वही 'इज़्ज़तें
अगर अब भी तेरा बढ़े क़दम तिरे सर पे 'इल्म का हो 'अलम
वही जाह फिर हो वही हशम वही दौलतें वही सर्वतें
अगर अब भी दौड़ के चार-सू करे ताज़ा सन’अतें अपनी तू
तो बढ़े वो फिर तिरी आबरू कि हों महव सारी ये ज़िल्लतें
नई सन'अतों की भी ले ख़बर कि तिरे चमन में हों सब शजर
तिरी उँगलियों में हों सब हुनर तिरी अरग़नूँ में हों सब गतें
यही आरज़ू है अब ऐ वतन कि शगुफ़्ता फिर हो तिरा चमन
तिरा बख़्त फिर हो ज़िया-फ़गन तिरी दूर सब हों ये कुल्फ़तें
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