याद नगर
मैं ओस बन के बरस जाऊँ तेरे सब्ज़े पर
मैं गीत बन के तिरी वादियों में खो जाऊँ
बस एक बार बुला ले मुझे वतन मेरे
कि तेरी ख़ाक के दामन में छुप के सो जाऊँ
शगुफ़्ता घास में ये ज़र्द ज़र्द नन्हे फूल
न जाने किस लिए पगडंडियों को तकते हैं
उन्हें ख़बर ही नहीं उन को चुनने वाले आज
घरों से दूर किसी कैम्प में सिसकते हैं
कई घरानों की फ़रियाद इस में डूब गई
अब इस कुएँ पे न आएगी कोई पनहारी
किसान खेत न सींचेंगे ऐसे पानी से
हरी न होगी उसे पी के कोई फुलवारी
यहीं नदी के किनारे इसे दबाया था
मगर शबानों को वो बारहा नज़र आई
हटी जो रेत तो चमका वो चाँद सा माथा
चली हवा तो वो रेशम सी ज़ुल्फ़ लहराई
मैं तेरे पाँव पड़ूँ हाथ रोक ले क़ातिल
उसे न मार जो तेरी तरफ़ हुमकता है
ये तेग़ को भी खिलौना समझने वाला है
ये ला'ल फेंक के अंगारा चूस सकता है
कहा किसी ने कि वो जल्द लौट आएँगे
कहा किसी ने कि उम्मीद अब बहुत कम है
इलाही डूबते दिल को ज़रा सहारा दे
मिरे चराग़ की लौ आज कितनी मद्धम है
निबोली नीम की पक्की अब आएगा सावन
मगर ये गीत उसे आह कैसे याद आया
वो अपनी माँ से लिपट कर न रो सकेगा कभी
न सर पे हाथ कभी रख सकेगा माँ-जाया
सुना है नींद में वो चौंक चौंक पड़ते हैं
लहू के दाग़ थे जिन पर वो हाथ जलते हैं
पड़ोसियों से ये कह दो वो मिशअलें रख दें
कि एक गाँव के घर साथ साथ जलते हैं
इलाही शाम अब इस गाँव में न आने पाए
कि इस के आते ही दुखियाएँ मिल के रोती हैं
दरिंदे अपने भटों में दहलने लगते हैं
हवाएँ कोह से टकरा के जान खोती है
दिए के वास्ते नन्हे पनाह-गीर न रो
फ़लक पे देख वो क़िंदील-ए-माह रौशन है
इसी फ़ज़ा में मिरे चाँद तू भी उभरेगा
जो तू है साथ तो ग़ुर्बत की राह रौशन है
तिलाई घास से वादी में था तलातुम सा
हवा में नर्म शुआ'ओं की सरसराहट थी
नया था चश्मा-ए-मेहर और नया था रंग-ए-सिपहर
हर एक गोशे में लेकिन अजल की आहट थी
हवा ने दीप बुझाया ही था कि निकला चाँद
क़लम को तेज़ चलाओ कि ये भी डूब न जाए
ख़ुद अपने दिल के उजाले का ए'तिबार नहीं
कि एक बार ये जाए तो फिर पलट के न आए
ये चाँदनी का उजाला ये नीम-शब का सुकूँ
सफ़ेद गुम्बद-ओ-दर दूध में नहाए हुए
सितारो कोई कहानी कहो कि रात कटे
न याद आएँ मुझे रोज़-ओ-शब भुलाए हुए
- पुस्तक : Silsila-e-makalmat (पृष्ठ 274)
- रचनाकार : Shafique Fatma Shora
- प्रकाशन : Educational Publishing House (2006)
- संस्करण : 2006
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