फ़सादात व दंगों पर लिखी गईं चुनिंदा उर्दू कहानियाँ
ठंडा गोश्त
ईशर सिंह जूंही होटल के कमरे में दाख़िल हुआ, कुलवंत कौर पलंग पर से उठी। अपनी तेज़ तेज़ आँखों से उसकी तरफ़ घूर के देखा और दरवाज़े की चटख़्नी बंद कर दी। रात के बारह बज चुके थे, शहर का मुज़ाफ़ात एक अजीब पुर-असरार ख़ामोशी में ग़र्क़ था। कुलवंत कौर पलंग पर आलती
सआदत हसन मंटो
टोबा टेक सिंह
इस कहानी में प्रवासन की पीड़ा को विषय बनाया गया है। देश विभाजन के बाद जहां हर चीज़ का आदान-प्रदान हो रहा था वहीं क़ैदीयों और पागलों को भी स्थानान्तरित करने की योजना बनाई गई। फ़ज़लदीन पागल को सिर्फ़ इस बात से सरोकार है कि उसे उसकी जगह 'टोबा टेक सिंह' से जुदा न किया जाये। वो जगह चाहे हिन्दुस्तान में हो या पाकिस्तान में। जब उसे जबरन वहां से निकालने की कोशिश की जाती है तो वह एक ऐसी जगह जम कर खड़ा हो जाता है जो न हिन्दुस्तान का हिस्सा है और न पाकिस्तान का और उसी जगह पर एक ऊँची चीख़ के साथ औंधे मुँह गिर कर मर जाता है।
सआदत हसन मंटो
खोल दो
अमृतसर से स्शपेशल ट्रेन दोपहर दो बजे को चली और आठ घंटों के बाद मुग़लपुरा पहुंची। रास्ते में कई आदमी मारे गए। मुतअद्दिद ज़ख़्मी हुए और कुछ इधर उधर भटक गए। सुबह दस बजे कैंप की ठंडी ज़मीन पर जब सिराजुद्दीन ने आँखें खोलीं और अपने चारों तरफ़ मर्दों, औरतों
सआदत हसन मंटो
लाजवंती
लाजवंती ईमानदारी और ख़ुलूस के सुंदरलाल से मोहब्बत करती है। सुंदरलाल भी लाजवंती पर जान छिड़कता है। लेकिन बँटवारे के वक़्त कुछ मुस्लिम नौजवान लाजवंती को अपने साथ पाकिस्तान ले जाते हैं और फिर मुहाजिरों की अदला-बदली में लाजवंती वापस सुंदरलाल के पास आ जाती है। इस दौरान लाजवंती के लिए सुंदरलाल का रवैया इस क़दर बदल जाता है कि लाजवंती को अपनी वफ़ादारी और पाकीज़गी पर कुछ ऐसे सवाल खड़े दिखाई देते हैं जिनका उसके पास कोई जवाब नहीं है।
राजिंदर सिंह बेदी
गडरिया
यह कहानी फ़ारसी के एक सिख टीचर के गिर्द घूमती है, जो अपने मुस्लिम स्टूडेंट को न केवल मुफ़्त में पढ़ाता, बल्कि उसे अपने घर में भी रखता है। पढ़ाई के बाद स्टूडेंट नौकरी के लिए शहर चला जाता। विभाजन के दौर में वह वापस आता है तो एक जगह कुछ मुस्लिम नौजवानों को खड़े हुए पाता है। पास जाकर क्या देखता है कि उन्होंने उसके टीचर को चारों तरफ़ से घेरा हुआ। टीचर डरा हुआ ख़ामोश खड़ा है। वह उनके चंगुल से टीचर को बचाने की कोशिश करता है। मगर नफ़रत की आग में भड़की ख़ून की प्यासी भीड़ के सामने असहाय होकर रह जाता है।
अशफ़ाक़ अहमद
पेशावर एक्सप्रेस
भारत-पाकिस्तान विभाजन पर लिखी गई एक बहुत दिलचस्प कहानी। इसमें घटना है, दंगे हैं, विस्थापन है, लोग हैं, उनकी कहानियाँ, लेकिन कोई भी केंद्र में नहीं है। केंद्र में है तो एक ट्रेन, जो पेशावर से चलती है और अपने सफ़र के साथ बँटवारे के बाद हुई हैवानियत की ऐसी तस्वीर पेश करती है कि पढ़ने वाले की रुह काँप जाती है।
कृष्ण चंदर
अमृतसर आज़ादी से पहले
जलियाँवाला बाग़ में हज़ारों का मजमा था। इस मजमे में हिंदू थे, सिक्ख भी थे और मुस्लमान भी। हिंदू मुस्लमानों से और मुस्लमान सिक्खों से अलग साफ़ पहचाने जाते थे। सूरतें अलग थीं, मिज़ाज अलग थे, तहज़ीबें अलग थीं, मज़हब अलग थे लेकिन आज ये सब लोग जलियाँवाला बाग़
कृष्ण चंदर
अमृतसर आज़ादी के बाद
पंद्रह अगस्त 1947-ई को हिन्दोस्तान आज़ाद हुआ। पाकिस्तान आज़ाद हुआ। पंद्रह अगस्त 1947-ई को हिन्दोस्तान भर में जश्न-ए-आज़ादी मनाया जा रहा था और कराची में आज़ाद पाकिस्तान के फ़र्हत-नाक नारे बुलंद हो रहे थे। पंद्रह अगस्त 1947-ई को लाहौर जल रहा था और अमृतसर
कृष्ण चंदर
मूत्री
इस कहानी में देश विभाजन से ज़रा पहले की स्थिति को चित्रित किया गया है। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों के विरुद्ध मूत्रालय में अलग-अलग जुमले लिखे मिलते थे। मुसलमानों की बहन का पाकिस्तान मारा और हिंदुओं की माँ का अखंड हिन्दुस्तान मारा के नीचे लेखक ने दोनों की माँ का हिन्दुस्तान मारा लिख कर ये महसूस किया था कि एक लम्हे के लिए मूत्री की बदबू महक में तब्दील हो गई है।
सआदत हसन मंटो
इज़दवाज-ए-मुहब्बत
यह एक ऐसे शख़्स की की कहानी है, जो हैदराबाद की रियासत में डॉक्टर हुआ करता था। वहाँ उसे लेडीज़ डिस्पेंसरी में कम करने वाली एक लेडी डॉक्टर से मोहब्बत हो जाती है। वह उससे शादी कर लेता है। मगर इस शादी से नाराज़ होकर रियासत के हुक्काम उसे 48 घंटे में रियासत छोड़ने का हुक्म सुना देते हैं। इस हुक्म से उनकी ज़िंदगी पूरी तरह बदल जाती है।
सज्जाद हैदर यलदरम
जड़ें
सब के चेहरे फ़क़ थे घर में खाना भी न पका था। आज छटा रोज़ था। बच्चे स्कूल छोड़े घरों में बैठे अपनी और सारे घर वालों की ज़िंदगी वबाल किए दे रहे थे। वही मार-कुटाई, धौल-धप्पा, वही उधम और क़लाबाज़ियाँ जैसे 15 अगस्त आया ही न हो। कमबख़्तों को ये भी ख़्याल नहीं
इस्मत चुग़ताई
और आइशा आ गयी
यह एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है, जो विभाजन के समय बम्बई से कराची प्रवास कर जाता है। वहां वह कई काम करता है, लेकिन कोई काम उसे रास नहीं आता। फिर कुछ लोग उसे दलाली करने के लिए कहते हैं, लेकिन अपनी दीनदार बेटी के कारण वह इंकार कर देता है। बेटी की शादी से पहले वह वही सब काम करने लगता है और बहुत अमीर हो जाता है। शादी के एक अर्से के बाद जब उसकी बेटी उससे मिलने आने वाली होती है तो वह उन सब कामों से तौबा कर लेता है।
क़ुद्रतुल्लाह शहाब
परमेशर सिंह
बँटवारे के समय पाँच बरस का अख़्तर पाकिस्तान जाते एक समूह में अपनी माँ से बिछड़ जाता है और भारत में ही रह जाता है। सीमा के पास सिखों के एक गिरोह को वह मिलता है। उनमें से एक परमेश्वर सिंह उसे अपने बेटा करतार सिंह बनाकर घर ले आता है। करतार सिंह भी दंगे के दौरान कहीं खो गया है। अख़्तर के साथ परमेश्वर सिंह की बेटी और बीवी का रवैया अच्छा नहीं है। अख़्तर भी अपनी अम्मी के पास जाने की रट लगाए रखता है। एक रोज़ गाँव में बिछड़े लोगों को ले जाने के लिए फ़ौज की गाड़ी गाँव में आती है, तो परमेश्वर सिंह अख़्तर को छुपा देता है। लेकिन फिर ख़ुद ही उसे सैनिकों के कैंप के पास छोड़ जाता है, जहाँ सैनिक परमेश्वर पर गोली चला देता है और अख़्तर अम्मी के पास जाने के बजाए परमेश्वर के पास दौड़ा चला आता है।
अहमद नदीम क़ासमी
हिन्दुस्तान से एक ख़त
आज़ादी अपने साथ केवल विभाजन ही नहीं बर्बादी और तबाही भी लाई थी। ‘हिंदुस्तान से एक ख़त’ ऐसे ही एक तबाह-ओ-बर्बाद ख़ानदान की कहानी है, जो भारत की तरह (हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश) खु़द भी तीनों हिस्सों में तक़्सीम हो गया है। उसी ख़ानदान का एक फ़र्द पाकिस्तान में रहने वाले अपने रिश्तेदार को यह ख़त लिखता है, जो महज़ ख़त नहीं, बल्कि दास्तान है एक ख़ानदान के टूटने और टूटकर बिखर जाने की।
इन्तिज़ार हुसैन
मेरी मौत
एक सच्ची घटना पर आधारित कहानी है। इसका मुख्य किरदार एक साम्प्रदायिक मुसलमान है। वह मुसलमान सरदारों से डरता भी है और उनसे नफरत भी करता है। वह अपने पड़ोसी सरदार पर बिल्कुल भी भरोसा नहीं करता। लेकिन विभाजन के दौरान जब दंगे भड़क उठते हैं तब यही पड़ोसी सरदार उस मुसलमान को बचाता है।
ख़्वाजा अहमद अब्बास
आदमी
खिड़की के नीचे उन्हें गुज़रता हुआ देखता रहा। फिर यकायक खिड़की ज़ोर से बंद की। मुड़कर पंखे का बटन ऑन किया। फिर पंखे का बटन ऑफ़ किया। मेज़ के पास कुर्सी पे टिक कर धीमे से बोला, “आज तवक्कुल से भी ज़ियादा हैं। रोज़ बढ़ते ही जा रहे हैं।” सरफ़राज़ ने हथेलियों पर
सय्यद मोहम्मद अशरफ़
गैस चैंबर
"कर्फ़्यू के दौरान पैदा होने वाले बच्चे की ज़िंदगी और मौत की कश्मकश को इस कहानी में प्रस्तुत किया गया है। एक नवजात जिसको ज़िंदगी के लिए सिर्फ़ हवा, दूध और नींद की ज़रूरत है, वो कर्फ़्यू की वजह से उन तीनों चीज़ों से वंचित है। आँसू गैस की वजह से वो आँखें नहीं खोल पा रहा है, कर्फ़्यू की वजह से दूध वाला नहीं आ रहा है और वो डिब्बे के दूध पर गुज़ारा कर रहा है। धमाकों के शोर की वजह से वो सो नहीं पा रहा है और प्रदुषण के कारण उसको साफ़ सुथरी हवा उपलब्ध नहीं, जैसे यह दुनिया उसके लिए एक गैस चैंबर बन गई है।"
मुस्तनसिर हुसैन तारड़
सिंघार-दान
इस अफ़साने में फ़सादात के बाद की इन्सानी सूरत-ए-हाल को मौज़ूअ् बनाया है। सिंघार-दान जो नसीम जान (तवाइफ़ का मौरूसी सिंघार-दान था, के ज़रीए बृजमोहन के ख़ानदान की सोच और तर्ज़-ए-फ़िक्र को तिलिस्माती तौर पर तबदील होते दिखाया गया है। बृजमोहन, नसीम जान का क़ीमती सिंघार-दान उससे छीन कर अपने घर ले आता है जिसे वो ख़ुद, उसकी बीवी और तीनों बेटियाँ इस्तिमाल करने लगती हैं लेकिन उसके इस्तिमाल के बाद घर के तमाम लोगों का तर्ज़-ए-एहसास यकायक तबदील होने लगता है और एक तवाइफ़ की ख़सलतें उनमें पनपने लगती हैं। यहाँ किरदारों की क़ल्ब-ए-माहियत को जिस तिलिस्माती पैराए में पेश किया गया है वो मुआशरे के तश्कीली अनासिर के मुतअल्लिक़ कई हवालों से सोचने पर मजबूर करता है।
शमोएल अहमद
दम
दंगों में घिरे एक परिवार की कहानी। वे तीन भाई थे। तीनों में से दो घर पर थे और एक बाहर गया हुआ था। तीसरा जब बाहर से लौटकर घर आया तो उसने अपनी रोती हुई माँ को बताया कि वह तीन को ठिकाने लगाकर आया है। माँ उससे हर बात को विस्तार से पूछती है। बाहर गलियों में पुलिस गश्त कर रही होती है और दोनों पक्ष नारा लगा रहे होते हैं। बाद में पता चलता है कि नारे तो मोहल्ले का पागल आदमी लगा रहा है। नारा सुनकर पुलिस उस घर में घुस आती है, लेकिन पुलिस उस पागल को पकड़ने के बजाय घर वालों को पकड़ ले जाती है।
अब्दुस्समद
शुक्र-गुज़ार आँखें
यह एक ऐसे शख़्स की कहानी है, जो दंगाइयों के एक ऐसे गिरोह में शामिल होता है, जो एक ट्रेन को घेर कर रोक लेता है। गिरोह ट्रेन में बैठे मुसलमानों को उतार लेता है। उनमें एक नवदंपत्ति भी होता है। वह शख़्स नवदंपत्ति के दूल्हे को मार देता है और फिर दुल्हन की इल्तिजा पर उसे भी मौत के घाट उतार देता है। मरते वक़्त दुल्हन की आँखों में कुछ ऐसा भाव था जिसे वह सारी ज़िंदगी कभी भुला नहीं पाया।
हयातुल्लाह अंसारी
लकीर
आज सूरज ग़ुरूब होने से पहले बादलों भरे आसमान पर अजब तरह का रंग छा गया था। यह रंग सुर्ख़ भी था और ज़र्द भी। इन दोनों रंगों ने आसमान को दरमियान से तक़सीम कर दिया था। जिस मक़ाम पर दोनों रंग मिल रहे थे, वहाँ एक गहरी लकीर दिखाई देती थी। ध्यान से देखने पर महसूस
तारिक़ छतारी
साँपों से न डरने वाला बच्चा
यह कहानी एक ऐसे शख़्स की है, जो घर वालों से दूर एक मामूली सी तनख़्वाह की नौकरी करता है। अपने परिवार की ज़रूरियात को पूरा करने के लिए वह एक दोस्त की सलाह पर क़र्ज़ ले लेता है और घर जाने से पहले ख़ूब सारी ख़रीदारी करता है। शाम को वह दोस्त के साथ एक पार्क में जाता है, जहाँ कभी वह अपने बीवी-बच्चों के साथ आया करता था। अगले दिन गाड़ी में बैठकर वह उस शहर की ओर चल देता है जहाँ कई अनहोनियाँ उसका इंतिज़ार कर रही होती हैं।
शौकत हयात
अजंता
यह कहानी सच्ची घटना पर आधारित है। इसमें अजंता के द्वारा गीता के उपदेशों को बहुत सुंदर ढंग से मूर्तियों के माध्यम से पेश किया गया है। कहानी का हीरो दंगा-फ़साद से भागकर अजंता की गुफ़ाओं में पनाह लेता है। वहाँ उसे गुफ़ाओं के माध्यम से गीता का उपदेश मिलता है, ‘कर्म कर, फल की चिंता मत कर।’ उपदेश पढ़कर हीरो को अपने कर्तव्य का बोध होता है वह वापस बंबई चला आता है।
ख़्वाजा अहमद अब्बास
दहशत
दंगों के दौरान कर्फ़्यू में फँसे एक ऐसे साधारण आदमी की कहानी, जो दहशत के कारण बोल तक नहीं पाता। वह आदमी डरते हुए किसी तरह अपने मोहल्ले तक पहुँचता है। वहाँ उसे अँधेरे में एक साया लहराता दिखाई देता है। उस साये से ख़ुद को बचाने के लिए वह उसे अपना सब कुछ देने के लिए तैयार हो जाता है। तभी साया को अपनी तरफ़ बढ़ता देख डर से वह आँखें बंद कर लेता है। अगले ही क्षण उसे महसूस होता है कि साया उसके क़दमों में पड़ा उससे रहम की भीख माँग रहा है।
सलाम बिन रज़्जाक़
उनकी ईद
यह कहानी बाबरी विध्वंस के दौरान हुए दंगों में अपने प्रियजनों और अपनी संपत्ति को खो देने वाले एक मुस्लिम परिवार को आधार बनाकर लिखी गई है। मुंबई में उनके पास अपना एक अच्छा सा घर था और चलता हुआ कारोबार भी। उन्होंने अपने एक-दो रिश्तेदारों को भी अपने पास बुला लिया था। फिर शहर में दंगा भड़क उठा और देखते ही देखते सब कुछ तबाह हो गया। वे वापस गाँव लौट आए, मायूस और बदहाल। गाँव में यह उनकी दूसरी ईद थी, पर दिलों में पहली ईद से कहीं ज़्यादा दुख था।
ज़किया मशहदी
भाई
ऐसे शख़्स की कहानी जो दंगा-ग्रस्त शहर में एक सड़क के किनारे खड़ा सवारी गाड़ी का इंतज़ार कर रहा होता है। तभी उसकी बग़ल में ही एक दूसरा शख़्स भी आ खड़ा होता है। वह बार-बार उसकी तरफ़ देखता है और उससे बचाव के लिए अपनी जेब में ईंट का एक टुकड़ा उठाकर रख लेता है। तभी एक सवारी गाड़ी रुकती है और वे दोनों उसमें सवार हो जाते हैं। आगे जाने पर उस गाड़ी को बलवाई घेर लेते हैं। बलवाई जब उसे मारने के लिए हथियार उठाते हैं तो दूसरा शख़्स उसे बचाता हुआ कहता है कि वह उसका भाई है।
शौकत हयात
बीच भंवर नदिया गहरी
इक़बाल साहब ने अख़बार की सुर्ख़ी पढ़ने के बाद पूरी ख़बर को पढ़ना भी ज़रूरी नहीं समझा और उसे ग़ुस्से से किताबों के रैकट की तरफ उछाल दिया, और सोचने लगे, हद हो गई अब तो ऐसा लगता है मुसलमानों से उनका अल्लाह बिल्कुल ही रूठ गया है और उन्हें आर एस एस के हवाले करके
नूरुल हसनैन
रूह से लिपटी हुई आग
कहानी मानवीय स्वभाव की उस सोच पर वार करती है जिसे फ़साद फैलाने और क़त्ल-ओ-ग़ारतगरी के लिए कोई बहाना चाहिए। ऐसी स्वभाव के लोगों के लिए एक छोटी सी अफ़वाह ही काफ़ी होती है। भीड़ भरे बाज़ार वीरान होने लगते हैं, लोग सड़कों से गायब हो जाते हैं और अपने घरों या किसी सुरक्षित जगह पनाह ले लेते हैं। दुकानें लूट ली जाती हैं और घरों को आग लगा दिया जाता है।
आबिद सुहैल
मुहाजिर परिंदे
एक ऐसे लड़के की कहानी है, जिसके माँ-बाप उसे दंगाइयों से बचाने के लिए गाँव से दूर भेज देते हैं। वहाँ से भागकर वह एक पादरी के घर में पनाह लेता है। उसके वहाँ आने के कुछ दिन बाद ही दक्षिणपंथी समूह का एक कार्यकर्ता पादरी का क़त्ल कर देता है और पुलिस उस क़ातिल को पकड़ने की बजाय पादरी पर ही ज़बरदस्ती धर्म परिवर्तन कराने का इल्ज़ाम लगाकर शंभू को इसकी गवाही देने के लिए कहती है।
शफ़क़
सवा-नेज़े पर सूरज
शिया-सुन्नी विवाद पर लिखी गई एक प्रतीकात्मक कहानी है। घर के बच्चे हर वक़्त खेलते रहते हैं। वे इतना खेलते हैं कि हर खेल से आजिज़ आ जाते हैं। अब्बू जी उन्हें सोने के लिए कहते हैं, लेकिन वे चुपके से उठ कर दूसरे कमरे में चले जाते हैं। जहाँ वे सब मिलकर शिया-सुन्नी की लड़ाई का खेल खेलते हैं।