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कैफ़ी विजदानी

1932 | बरेली, भारत

जाने माने शायर / विख्यात उत्रर-आधनिक शायर शारिक़ कैफ़ी के पिता

जाने माने शायर / विख्यात उत्रर-आधनिक शायर शारिक़ कैफ़ी के पिता

कैफ़ी विजदानी के शेर

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ये खुले खुले से गेसू इन्हें लाख तू सँवारे

मिरे हाथ से सँवरते तो कुछ और बात होती

सिर्फ़ दरवाज़े तलक जा के ही लौट आया हूँ

ऐसा लगता है कि सदियों का सफ़र कर आया

ख़ुद ही उछालूँ पत्थर ख़ुद ही सर पर ले लूँ

जब चाहूँ सूने मौसम से मंज़र ले लूँ

तमाम-शहर जिसे छोड़ने को आया है

वो शख़्स कितना अकेला सफ़र पे निकलेगा

मेरे रस्ते में जो रौनक़ थी मेरे फ़न की थी

मेरे घर में जो अंधेरा था मेरा अपना था

तू इक क़दम भी जो मेरी तरफ़ बढ़ा देता

मैं मंज़िलें तिरी दहलीज़ से मिला देता

बचा लिया तिरी ख़ुश्बू के फ़र्क़ ने वर्ना

मैं तेरे वहम में तुझ से लिपटने वाला था

बस्ती में ग़रीबों की जहाँ आग लगी थी

सुनते हैं वहाँ एक नया शहर बसेगा

ज़मीं के ज़ख़्म समुंदर तो भर पाएगा

ये काम दीदा-ए-तर तुझ को सौंपना होगा

तमाम शहर जिसे छोड़ने को आया है

वो शख़्स कितना अकेला सफ़र पे निकलेगा

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