मुईन अहसन जज़्बी के शेर
मुख़्तसर ये है हमारी दास्तान-ए-ज़िंदगी
इक सुकून-ए-दिल की ख़ातिर उम्र भर तड़पा किए
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यही ज़िंदगी मुसीबत यही ज़िंदगी मसर्रत
यही ज़िंदगी हक़ीक़त यही ज़िंदगी फ़साना
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टैग : ज़िंदगी
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ऐ मौज-ए-बला उन को भी ज़रा दो चार थपेड़े हल्के से
कुछ लोग अभी तक साहिल से तूफ़ाँ का नज़ारा करते हैं
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टैग : प्रेरणादायक
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जो आग लगाई थी तुम ने उस को तो बुझाया अश्कों ने
जो अश्कों ने भड़काई है उस आग को ठंडा कौन करे
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टैग : आँसू
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जब कश्ती साबित-ओ-सालिम थी साहिल की तमन्ना किस को थी
अब ऐसी शिकस्ता कश्ती पर साहिल की तमन्ना कौन करे
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मिले मुझ को ग़म से फ़ुर्सत तो सुनाऊँ वो फ़साना
कि टपक पड़े नज़र से मय-ए-इशरत-ए-शबाना
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जब तुझ को तमन्ना मेरी थी तब मुझ को तमन्ना तेरी थी
अब तुझ को तमन्ना ग़ैर की है तो तेरी तमन्ना कौन करे
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जब मोहब्बत का नाम सुनता हूँ
हाए कितना मलाल होता है
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मरने की दुआएँ क्यूँ माँगूँ जीने की तमन्ना कौन करे
ये दुनिया हो या वो दुनिया अब ख़्वाहिश-ए-दुनिया कौन करे
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हज़ार बार किया अज़्म-ए-तर्क-ए-नज़्ज़ारा
हज़ार बार मगर देखना पड़ा मुझ को
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हमीं हैं सोज़ हमीं साज़ हैं हमीं नग़्मा
ज़रा सँभल के सर-ए-बज़्म छेड़ना हम को
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मुस्कुरा कर डाल दी रुख़ पर नक़ाब
मिल गया जो कुछ कि मिलना था जवाब
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न आए मौत ख़ुदाया तबाह-हाली में
ये नाम होगा ग़म-ए-रोज़गार सह न सका
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तिरी रुस्वाई का है डर वर्ना
दिल के जज़्बात तो महदूद नहीं
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अल्लाह-रे बे-ख़ुदी कि चला जा रहा हूँ मैं
मंज़िल को देखता हुआ कुछ सोचता हुआ
उस ने इस तरह मोहब्बत की निगाहें डालीं
हम से दुनिया का कोई राज़ छुपाया न गया
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मेरी अर्ज़-ए-शौक़ बे-मअ'नी है उन के वास्ते
उन की ख़ामोशी भी इक पैग़ाम है मेरे लिए
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टैग : ख़ामोशी
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क्या मातम उन उम्मीदों का जो आते ही दिल में ख़ाक हुईं
क्या रोए फ़लक उन तारों पर दम भर जो चमक कर टूट गए
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कभी दर्द की तमन्ना कभी कोशिश-ए-मुदावा
कभी बिजलियों की ख़्वाहिश कभी फ़िक्र-ए-आशियाना
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रिसते हुए ज़ख़्मों का हो कुछ और मुदावा
ये हर्फ़-ए-तसल्ली कोई मरहम तो नहीं है
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दिल-ए-नाकाम थक के बैठ गया
जब नज़र आई मंज़िल-ए-मक़्सूद
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इक प्यास भरे दिल पर न हुई तासीर तुम्हारी नज़रों की
इक मोम के बे-बस टुकड़े पर ये नाज़ुक ख़ंजर टूट गए
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हम दहर के इस वीराने में जो कुछ भी नज़ारा करते हैं
अश्कों की ज़बाँ में कहते हैं आहों में इशारा करते हैं
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जब कभी किसी गुल पर इक ज़रा निखार आया
कम-निगाह ये समझे मौसम-ए-बहार आया
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ज़ब्त-ए-ग़म बे-सबब नहीं 'जज़्बी'
ख़लिश-ए-दिल बढ़ा रहा हूँ मैं
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या अश्कों का रोना था मुझे या अक्सर रोता रहता हूँ
या एक भी गौहर पास न था या लाखों गौहर टूट गए
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यूँ बढ़ी साअत-ब-साअत लज़्ज़त-ए-दर्द-ए-फ़िराक़
रफ़्ता रफ़्ता मैं ने ख़ुद को दुश्मन-ए-जाँ कर दिया
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अभी सुमूम ने मानी कहाँ नसीम से हार
अभी तो मअरका-हा-ए-चमन कुछ और भी हैं
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मेरी ही नज़र की मस्ती से सब शीशा-ओ-साग़र रक़्साँ थे
मेरी ही नज़र की गर्मी से सब शीशा-ओ-साग़र टूट गए
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तू और ग़म-ए-उल्फ़त 'जज़्बी' मुझ को तो यक़ीं आए न कभी
जिस क़ल्ब पे टूटे हों पत्थर उस क़ल्ब में नश्तर टूट गए
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