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ग़ज़ल
तुझ को जब तन्हा कभी पाना तो अज़-राह-ए-लिहाज़
हाल-ए-दिल बातों ही बातों में जताना याद है
हसरत मोहानी
नज़्म
शिकवा
उम्मतें और भी हैं उन में गुनहगार भी हैं
इज्ज़ वाले भी हैं मस्त-ए-मय-ए-पिंदार भी हैं
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
व-यबक़ा-वज्ह-ओ-रब्बिक (हम देखेंगे)
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
जवाब-ए-शिकवा
आलिम-ए-कैफ़ है दाना-ए-रुमूज़-ए-कम है
हाँ मगर इज्ज़ के असरार से ना-महरम है
अल्लामा इक़बाल
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ग़ज़ल
वाँ वो ग़ुरूर-ए-इज्ज़-ओ-नाज़ याँ ये हिजाब-ए-पास-ए-वज़अ
राह में हम मिलें कहाँ बज़्म में वो बुलाए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
इक तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल है सो वो उन को मुबारक
इक अर्ज़-ए-तमन्ना है सो हम करते रहेंगे