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नज़्म
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थी तो मौजूद अज़ल से ही तिरी ज़ात-ए-क़दीम
फूल था ज़ेब-ए-चमन पर न परेशाँ थी शमीम
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
रक़ीब से!
ज़ेर-दस्तों के मसाइब को समझना सीखा
सर्द आहों के रुख़-ए-ज़र्द के मअ'नी सीखे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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ग़ज़ल
अमीर ख़ुसरो
ग़ज़ल
जौन एलिया
नज़्म
दरख़्त-ए-ज़र्द
है ''ज़'' बाज़ार में तो दरमियाँ 'ज़रयून' में अव्वल
तो ये इब्राफ़नीक़ी खेलते हर्फ़ों से थे हर पल