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ग़ज़ल
आ गया गर वस्ल की शब भी कहीं ज़िक्र-ए-फ़िराक़
वो तिरा रो रो के मुझ को भी रुलाना याद है
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
मोमिन ख़ाँ मोमिन
नज़्म
शिकवा
आ गया ऐन लड़ाई में अगर वक़्त-ए-नमाज़
क़िबला-रू हो के ज़मीं-बोस हुई क़ौम-ए-हिजाज़
अल्लामा इक़बाल
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ग़ज़ल
अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँद
या'नी रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
मेरे लबों पे मोहर थी पर मेरे शीशा-रू ने तो
शहर के शहर को मिरा वाक़िफ़-ए-हाल कर दिया
परवीन शाकिर
नज़्म
आवारा
रास्ते में रुक के दम ले लूँ मिरी आदत नहीं
लौट कर वापस चला जाऊँ मिरी फ़ितरत नहीं