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नज़्म
इस वक़्त तो यूँ लगता है
शाख़ों में ख़यालों के घने पेड़ की शायद
अब आ के करेगा न कोई ख़्वाब बसेरा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
एक नौ-जवान के नाम
नहीं तेरा नशेमन क़स्र-ए-सुल्तानी के गुम्बद पर
तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चटानों में