aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "دھات"
सत्याधार सत्या
शायर
गोकलदास धूत नव युग साहित्य सदन, इंदौर
पर्काशक
हाफ़िज़ धामपुरी
लेखक
सैकड़ों ऐसी दुकानें हैं जहाँ मिल जाएँगीधात की पत्थर की शीशे की रबड़ की औरतें
धात और पत्थर के बुतगोश-ए-दीवार में हँसते हुए!
लहू थूकती औरत धात नहींचूड़ियों की चोर नहीं
आब ओ ख़ाक ओ बाद में भी लहर वो आ जाए हैसुर्ख़ कर देती है दम भर में जो पीली धात को
धातدھات
matter
Asan Nazmein
1958नज़्म
Dhan Katne Ke Bad
अनवर अज़ीम
1999
Sans Ki Dhar
क़ैसर शमीम
1997ग़ज़ल
मोती उगे धान के खेत
बेकल उत्साही
2002ग़ज़ल
Do Ser Dhan
तकषी शिवशंकर पिल्लै
1981नॉवेल / उपन्यास
तकशी शिव शंकर पल्ले
1958नॉवेल / उपन्यास
Samiksha Parhar Ki Kund Dhar
मिस्री लाल
1975
दो सेर धान
नॉवेल / उपन्यास
Manjhdhar
नसीमा क़ाज़ी
शैख़-ए-बे-नफ़स को नज़ला नहीं है नाक की राहये है ज़िर्यान-ए-मनी धात चली जाती है
सच पूछिए तो मुझे अख़बार के उन सफ़्हों में से कोई सफ़ा पसंद नहीं। रेस के टिप अक्सर ग़लत निकलते हैं। मैं कई दफ़ा ग़च्चा खा चुका हूँ और रेस के अख़बारी माहिर की जान को रो चुका हूँ, रोटी, पटसन और पापड़ के भाव बदलते देखे हैं, सोना तो ख़ैर सोना है लेकिन चांदी का भाव भी आजकल यूं बढ़ रहा है कि समझ में नहीं आता कि कौन सी धात अच्छी है, सोना या चांदी? यही हाल मिलो...
हम अजब हैं कि उस के कूचे मेंबे-सबब धूम-धाम कर रहे हैं
चड्डे ने वन कुतरे के कद्दू ऐसे सर पर एक धौल जमाई, “अब चेक कर साले के... तू रम ले आया... बस ठीक है।” वन क़ुतरे ने अपना सर सहलाया और मेरा ख़ाली गिलास उठा कर अपने लिए पैग तैयार किया। “मंटो... ये साला आज मिलते ही कहने लगा। आज पीने को जी चाहता है... मैं एक दम कड़का... सोचा क्या करूं...”चड्डे ने एक और धप्पा उसके सर पर जमाया, “बैठ बे, जैसे तू ने कुछ सोचा ही होगा।”
बोले, “अच्छा! ये बात है!” फ़ौरन बंधी हुई मुठ्ठियाँ खोल दीं। आँखें झपकाईं और फेफड़ों को अपना क़ुदरती फ़े'ल फिर शुरू करने की इजाज़त दी। हमने इस “नेचुरल पोज़” से फ़ायदा उठाने की ग़रज़ से दौड़-दौड़ कर हर चीज़ को आख़िरी “टच” दिया, जिसमें ये बंधा-टका फ़िक़रा भी शामिल था, “इधर देखिए, मेरी तरफ। ज़रा मुस्कुराइए!”
बादशाहत के ज़माने और उससे पहले पत्थर और धात के ज़माने से लेकर आज तक जितने भी अदवार गुज़रे, ग़ुलामों की तिजारत को बहुत बड़ा फे़अल समझा जाता रहा है। लोग ग़ुलाम लेकर जहाज़ों में फिरते थे। उन्हें बिलआख़िर फ़रोख़्त कर के अपने पैसे खरे कर के चले जाते थे और इस से बड़ा और क्या दुख होगा कि इन्सान बिकते थे और कहाँ कहाँ से आकर बिकते थे और वो अपने नए मालिकों के पास कैस...
बोला, “बाऊजी, तुम्हारे नक़्शे में और कौन सी फल फलारी करांची में नजर आवे है? ये रुपये छटांक का सांची पान जो तुम्हारे ग़ुलाम के कल्ले में बताशे की तरियों घुल रहा है, मक़ाम बंगाल से आ रिया है। यहां क्या दम दुरूद रखा है। हालीयत तो ये है जी! करांची में मिट्टी तलक मलेर से आवे है। किस वास्ते कि उसमें ढाका से मंगा के घांस लगावेंगे। जवानी क़सम बाऊ जी, पिशावर क...
समुंदर फलाँग कर हमने जब मैदान उबूर किए तो देखा कि पगडंडियाँ हाथ की उंगलियों की तरह पहाड़ों पर फैल गईं। मैं इक ज़रा रुका और उन पर नज़र डाली जो बोझल सर झुकाए एक दूसरे के पीछे चले जा रहे थे। मैं बेपनाह अपनाइयत के एहसास से लबरेज़ हो गया... तब अलाहदगी के बेनाम जज़्बे ने ज़ेह्न में एक कसक की सूरत इख़्तियार की और मैं इन्तिहाई ग़म-ज़दा सर झुकाए वादी में उतर गया। जब पीछे मुड़ कर देखा तो वो सब थूथनियाँ उठाए मेरी तरफ़ देख रहे थे। बार-बार सर हिला कर वो अपनी रिफ़ाक़त का इज़हार करते, उनकी गर्दनों में बँधी हुई धात की घंटियाँ अलविदा, अलविदा पुकार रही थीं और उनकी बड़ी बड़ी सियाह आँखों के कोनों पर आँसू मोतियों की तरह चमक रहे थे।
Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi
Devoted to the preservation & promotion of Urdu
A Trilingual Treasure of Urdu Words
Online Treasure of Sufi and Sant Poetry
World of Hindi language and literature
The best way to learn Urdu online
Best of Urdu & Hindi Books