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ग़ज़ल
ऐ बे-दरेग़ ओ बे-अमाँ हम ने कभी की है फ़ुग़ाँ
हम को तिरी वहशत सही हम को सही सौदा तिरा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
सरज़द हम से बे-अदबी तो वहशत में भी कम ही हुई
कोसों उस की ओर गए पर सज्दा हर हर गाम किया
मीर तक़ी मीर
नज़्म
आवारा
ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
असरार-उल-हक़ मजाज़
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नज़्म
इतना मालूम है!
हाए किस दर्जा वही बज़्म में तन्हा होगा
कभी सन्नाटों से वहशत जो हुई होगी उसे
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
तुम्हें उस से मोहब्बत है तो हिम्मत क्यूँ नहीं करते
किसी दिन उस के दर पे रक़्स-ए-वहशत क्यूँ नहीं करते
फ़रहत एहसास
ग़ज़ल
आतिशीं-पा हूँ गुदाज़-ए-वहशत-ए-ज़िन्दाँ न पूछ
मू-ए-आतिश दीदा है हर हल्क़ा याँ ज़ंजीर का