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शेर
मातम में फ़ौत-ए-उम्र के रोता हूँ रात दिन
दुनिया में मुझ सा कम है कोई सोगवार शख़्स
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
फ़ुटपाथ पे भी सोने न दिया तिरे शहर के इज़्ज़त-दारों ने
हम कितनी दूर से आए थे इक रात बसर करने के लिए
अहमद मुश्ताक़
नज़्म
दरख़्तों के लिए
शाह की कुर्सी में ढलने से कहीं बेहतर है
किसी फ़ुटपाठ के होटल का वो टूटा हुआ तख़्ता बनना
फ़ाज़िल जमीली
ग़ज़ल
जिन के फ़ुटपाठ पे घर पाँव में छाले होंगे
उन के ज़ेहनों में न मस्जिद न शिवाले होंगे