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नज़्म
फ़रमान-ए-ख़ुदा
उठ्ठो मिरी दुनिया के ग़रीबों को जगा दो
काख़-ए-उमरा के दर ओ दीवार हिला दो
अल्लामा इक़बाल
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नज़्म
हसन कूज़ा-गर (1)
थे हर काख़-ओ-कू और हर शहर-ओ-क़रिया की नाज़िश
थे जिन से अमीर ओ गदा के मसाकिन दरख़्शाँ
नून मीम राशिद
शेर
छेड़ती हैं कभी लब को कभी रुख़्सारों को
तुम ने ज़ुल्फ़ों को बहुत सर पे चढ़ा रक्खा है
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
नज़्म
रूह देखी है कभी!
अपनी गहनाती हुई कोख को महसूस किया है?
जिस्म सौ बार जले तब भी वही मिट्टी है
गुलज़ार
नज़्म
आधी रात
ख़ुद अपने आप में ये काएनात डूब गई
ख़ुद अपनी कोख से फिर जगमगा के उभरेगी