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ग़ज़ल
ब-क़द्र-ए-ज़ौक़-ए-तलब मय अता हो रिंदों को
ये मै-कदा है यहाँ रस्म-ए-बेश-ओ-कम क्यों हो
मजीद खाम गानवी
ग़ज़ल
यार ने मेरी ख़ाक-ए-ख़ाम रख ली ख़ुद अपने चाक पर
मैं तो सफ़र पे चल पड़ा मेरा तो काम हो गया
फ़रहत एहसास
ग़ज़ल
हम से मिल के फ़ितरत के पेच-ओ-ख़म को समझोगे
हम जहान-ए-फ़ितरत का इक सुराग़ हैं यारो
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
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शेर
ख़ाक-ए-'शिबली' से ख़मीर अपना भी उट्ठा है 'फ़ज़ा'
नाम उर्दू का हुआ है इसी घर से ऊँचा
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
ख़ाक-ए-'शिबली' से ख़मीर अपना भी उट्ठा है 'फ़ज़ा'
नाम उर्दू का हुआ है इसी घर से ऊँचा
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
जो तिरी महफ़िल से ज़ौक़-ए-ख़ाम ले कर आए हैं
अपने सर वो ख़ुद ही इक इल्ज़ाम ले कर आए हैं
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
पारसा हम-राह ले जाएँगे पिंदार-ए-अमल
हम तो अपने साथ उन की ख़ाक-ए-पा ले जाएँगे
बद्र-ए-आलम ख़ाँ आज़मी
ग़ज़ल
जिसे मिल जाए ख़ाक-ए-पाक-ए-दश्त-ए-कर्बला 'परवीं'
पलट कर भी न देखे वो कभी इक्सीर की सूरत