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ग़ज़ल
गुलज़ार में जो दूर गुल-ए-लाला-रंग हो
वो बे-हिजाबियाँ हों कि नर्गिस भी दंग हो
लाला माधव राम जौहर
शेर
शबनमी क़तरे गुल-ए-लाला पे थे रक़्स-कुनाँ
बर्फ़ के टुकड़े भी देखे गए अँगारों में
महफूजुर्रहमान आदिल
नज़्म
ला-इलाहा-इल्लल्लाह
ये नग़्मा फ़स्ल-ए-गुल-ओ-लाला का नहीं पाबंद
बहार हो कि ख़िज़ाँ ला-इलाहा-इल्लल्लाह
अल्लामा इक़बाल
कुल्लियात
बहार-ओ-बाग़-ओ-गुल-ओ-लाला दिलरुबा बिन हैफ़
भरे हैं फूलों से जेब-ओ-कनार लेकिन हैफ़
मीर तक़ी मीर
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ग़ज़ल
हमेशा सैर-ए-गुल-ओ-लाला-ज़ार बाक़ी है
अगर बग़ल में दिल-ए-दाग़-दार बाक़ी है