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ग़ज़ल
भूले हैं अपने फ़र्ज़ को ये ख़्वाजगान-ए-हिन्द
हक़ देने में भी करते हैं इंकार आज-कल
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
सदा सुनते ही गोया मुर्दनी सी छा गई मुझ पर
ये शोर-ए-सूर था या वस्ल का इंकार था क्या था
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
अगरचे दिल से हूँ बंदा बुतों का मैं लेकिन
ज़बाँ पे कलमा-ए-तहरीम-ए-ला-इलाह भी है
मिर्ज़ा आसमान जाह अंजुम
समस्त
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नज़्म
शीशा का आदमी
ज़बाँ से कलमा-ए-हक़-रास्त कुछ कहा जाता
ज़मीर जागता और अपना इम्तिहाँ होता