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ग़ज़ल
शाम की राख बदन पर मल कर क़श्क़ा खींच सितारों से
रात सिंघासन अपना ही है कह दे हिज्र के मारों से
अज़ीज़ नबील
नज़्म
संग-ए-मील पहरों चलता है
मेरे लहू को तन्हाइयाँ चाट रही हैं
शहर की मुंडेर से तिनके चुराए थे
सारा शगुफ़्ता
शेर
इक हम कि हम को सुब्ह से है शाम की ख़ुशी
इक तुम कि तुम को शाम का धड़का सहर से है