सर्द हवा है नौहागर रात बहुत गुज़र गई
सर्द हवा है नौहागर रात बहुत गुज़र गई
ग़ौर से देख चश्म-ए-तर रात बहुत गुज़र गई
नींद में गुम हैं दश्त-ओ-बाग़ बुझ गए शहर के चराग़
ऐसे में जाऊँ मैं किधर रात बहुत गुज़र गई
अब तो सिमट रहे हैं साए लौट के वो जवाँ न आए
दिल में अजीब सा है डर रात बहुत गुज़र गई
गूँज रही है दूर तक अपने ही क़दमों की सदा
सूनी पड़ी है रहगुज़र रात बहुत गुज़र गई
जश्न-ए-तरब हुआ तमाम कुश्ता-चिराग़-ओ-साज़-ओ-जाम
बिखरे पड़े हैं फ़र्श पर रात बहुत गुज़र गई
महफ़िल-ए-दोस्ताँ से कब उठने को चाहता है दिल
सोच रहा हूँ जाऊँ घर रात बहुत गुज़र गई
जागा न एक शख़्स भी मेरी नवा-ए-दर्द से
नाले गए हैं बे-असर रात बहुत गुज़र गई
दिल में मिरे उतर गई सहन-ए-मकाँ की तीरगी
बुझ गई शम्अ' ताक़ पर रात बहुत गुज़र गई
ख़ौफ़ के साए चार-सू ऐ मिरे यार माह-रू
आज यहीं क़याम कर रात बहुत गुज़र गई
सो गए घर के सब मकीं पर मिरे इंतिज़ार में
जाग रहे हैं बाम-ओ-दर रात बहुत गुज़र गई
घर की मुंडेर से गई चाँद की ज़र्द रौशनी
दूर नहीं है अब सहर रात बहुत गुज़र गई
- पुस्तक : Kitab-e-Rafta (पृष्ठ 88)
- रचनाकार : Firasat Rizvi
- प्रकाशन : Academy Bazyaft, Karachi Pakistan (2007)
- संस्करण : 2007
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