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ग़ज़ल
कौन सियाही घोल रहा था वक़्त के बहते दरिया में
मैं ने आँख झुकी देखी है आज किसी हरजाई की
क़तील शिफ़ाई
नज़्म
बन-बास
आज तक पा न सका चश्मा-ए-आब-ए-हैवाँ
उस को सूरज भी मिले हैं तो सियाही बन कर