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ग़ज़ल
गुल-ओ-नस्रीं के तसव्वुर से मिरी साँसों में
निकहत-ए-ज़ुल्फ़-ए-मसीहा-नफ़साँ बाक़ी है
राम कृष्ण मुज़्तर
ग़ज़ल
जिस से 'अख़्तर' हो मिरे दर्द-ए-मोहब्बत का इलाज
क्या मसीहा-नफ़सों को वो दवा याद नहीं