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ग़ज़ल
क़यामत क्या ये ऐ हुस्न-ए-दो-आलम होती जाती है
कि महफ़िल तो वही है दिल-कशी कम होती जाती है
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
दिलों को खींच रही है किसी की मस्त निगाह
ये दिलकशी है तो फिर उज़्र-ए-मय-कशी क्या है
अहसन मारहरवी
ग़ज़ल
ज़िंदगी के इस सफ़र में सैकड़ों चेहरे मिले
दिलकशी उन की अलग पैकर तिरा अपनी जगह
इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
मत कहो क़िस्मत है अपनी बे-दिली नाग़ुफ़्तनी
फिर सहर होगी दरख़्शाँ फिर भले आएँगे लोग
किश्वर नाहीद
ग़ज़ल
न पूछ मुझ से जो कार-ए-सवाब में है मज़ा
ये पूछ मुझ से गुनाहों में दिलकशी क्या है